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क्खंडागमे जीवाणं
[ १, १,१.
संजोय दव्वं णाम पुध पुध पसिद्धाणं दव्वाणं संजोगेण णिप्पणं । समवाय-द णाम जं दव्वम्मि समवेदं । गुणो णाम पज्जायादि - परोप्पर - विरुद्धो अविरुद्धो वा । किरिया णाम परिष्कंदणरूवा । तत्थ जाइ - णिमित्तं णाम गो-मणुस्स - घड पड-त्थंभ - वेत्तादि' । संजोग - दव्व- णिमित्तं णाम दंडी छत्ती मोली इच्चेवमादि' | समवाय- णिमित्तं णाम गल-गंडो काणो कुंडो इच्चेवमाइ । गुण- णिमित्तं णाम किण्हो रुहिरो इच्चेवमाई । किरिया - णिमित्तं णाम गायणो णचणो इच्चेवमाई । ण च एदे चारि णिमित् मोण णाम- पउती अण्ण- णिमित्तंतरमत्थि ।
रखनेवाले द्रव्योंके मेलसे जो पैदा हो उसे संयोग-द्रव्य कहते हैं । जो द्रव्यमें समवेत हो अर्थात् कथंचित् तादात्म्य रखता हो उसे समवाय-द्रव्य कहते हैं । जो पर्याय आदिकसे परस्पर विरुद्ध हो अथवा अविरुद्ध हो उसे गुण कहते हैं ।
विशेषार्थ — इसका अर्थ इसप्रकार प्रतीत होता है कि उत्पाद और व्ययकी विवक्षासे गुण, पर्यायोंसे कथंचित् विरुद्ध अर्थात् भिन्न हैं, और धौन्य-विवक्षासे टंकोत्कीर्ण न्यायानुसार अभिन्न अर्थात् अविरुद्ध भी हैं।
परिस्पन्द अर्थात् हलन चलनरूप अवस्थाको क्रिया कहते हैं ।
उन चार प्रकारके निमित्तोंमेंसे, गौ, मनुष्य, घट, पट, स्तंभ और वेत इत्यादि जातिनिमित्तक नाम हैं, क्योंकि, गौ, मनुष्यादि संज्ञाएं गौ, मनुष्यादि जातिमें उत्पन्न होनेसे प्रचलित हैं । दण्डी, छत्री, मौली इत्यादि संयोग-द्रव्य-निमित्तक नाम हैं, क्योंकि, दंडा, छतरी, मुकुट इत्यादि स्वतंत्र सत्तावाले पदार्थ हैं, और उनके संयोगले दंडी, छत्री, मौली इत्यादि नाम व्यवहारमें आते हैं। गलगण्ड, काना, कुबड़ा इत्यादि समवाय-द्रव्यनिमित्तक नाम हैं, क्योंकि, जिसके लिये 'गलगण्ड' इस नामका उपयोग किया गया है उससे गलेका गण्ड भिन्न सत्तावाला नहीं है । इसीप्रकार काना, कुबड़ा आदि नाम समझ लेना चाहिये । कृष्ण, रुधिर इत्यादि गुणनिमित्तक नाम हैं, क्योंकि, कृष्ण आदि गुणों के निमित्तसे उन गुणवाले द्रव्योंमें ये नाम व्यवहारमें आते हैं। गायक, नर्तक इत्यादि क्रिया-निमित्तक नाम हैं, क्योंकि, गाना, नाचना आदि क्रियाओंके निमित्तसे गायक नर्तक आदि नाम व्यवहारमें आते हैं । इसतरह जाति आदि उन चार निमित्तोंको छोड़कर संज्ञाकी प्रवृत्ति में अन्य कोई निमित्त नहीं है ।
१ जातिद्वारेण शब्दो हि यो द्रव्यादिषु वर्तते । जातिहेतुः स विज्ञेयो गौरव इति शब्दवत् ॥ त. लो. वा. १, ५, ३.
२ संयोगि- द्रव्य-शब्दः स्यात्कुंडलीत्यादिशब्दवत् । समवायि द्रव्य शब्दो विषाणीत्यादिरास्थितः ॥ त. लो. वा. १, ५, ९.
३ गुणप्राधान्यतो वृत्ते द्रव्ये गुणनिमित्तकः । शुक्लः पाटल इल्यादि शब्दवत्संप्रतीयते ॥ त श्लो. वा. १, ५, ६. ४ कर्म - प्राधान्यतस्तत्र कर्महेतुर्नि बुध्यते । चरति पुत्रते यद्वत्कचिदित्यतिनिचितम् ॥ त. लो. बा. १,५,७.
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