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१, १, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं .. ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते ।
नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थ-परिग्रहः ॥ ११ ॥ इति । ततः कर्तव्यं नयनिरूपणम् ।
इदाणिं णिक्खेवत्थं भणिस्सामो । तत्थ णाम-मंगलं णाम णिमित्तंतर-णिरवेक्खा मंगल-सण्णा । तत्थ णिमित्तं चउबिह, जाइ-दव्य-गुण-किरिया चेदि । तत्थ जाई तब्भवसारिच्छ-लक्खण-सामण्णं । दव्वं दुविहं, संजोय-दव्वं समवाय-दव्वं चेदि । तत्थ
नामादि निक्षेपके द्वारा सूक्ष्म-दृष्टिसे विचार नहीं किया जाता है, वह पदार्थ कभी युक्त (संगत) होते हुए भी अयुक्त (असंगत) सा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्त की तरह प्रतीत होता है ॥ २०॥
विद्वान् लोग सम्यग्ज्ञानको प्रमाण कहते हैं, नामादिकके द्वारा वस्तुमें भेद करनेके उपायको न्यास या निक्षेप कहते हैं, और ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं। इसप्रकार युक्तिसे अर्थात् प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा पदार्थका ग्रहण अथवा निर्णय करना चाहिये ॥ ११ ॥
अतएव नयका निरूपण करना आवश्यक है।
अब आगे नामादि निक्षेपोंका कथन करते हैं। उनमेंसे, अन्य निमित्तों की अपेक्षा रहित किसीकी 'मंगल' ऐसी संक्षा करनेको नाममंगल कहते हैं। नाम निक्षेपमें संशाके चार निमित्त होते हैं, जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया । उन चार निमित्तों में से, तद्भव और सादृश्यलक्षणवाले सामान्यको जाति कहते हैं।
विशेषार्थ-जिसमें विवक्षित-द्रव्यगत भूत, वर्तमान और भविष्यकाल संबन्धी पर्याय अन्वयरूपसे होती हैं उस सामान्यको, अथवा किसी एक द्रव्यकी त्रिकालगोचर अनेक पर्यायोंमें रहनेवाले अन्वयको तद्भवसामान्य या ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं। जैसे मनुष्यकी बालक, युवा
और वृद्ध अवस्थामें मनुष्यत्व-सामान्यका अन्वय पाया जाता है । तथा एक ही समयमें नाना व्यक्तिगत सदृश परिणामको सादृश्यसामान्य या तिर्यक्सामान्य कहते हैं। जैसे, रंग, आकार आदिसे भिन्न भिन्न प्रकारकी गायोंमें गोत्व-सामान्यका अन्वय पाया जाता है।
द्रव्य-निमित्तके दो भेद हैं, संयोग-द्रव्य और समवाय-द्रव्य । उनमें, अलग अलग सत्ता
१ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास उच्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थ-परिग्रहः ॥ लघीय. ६, २. णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिंदय-भावत्थो । णिक्खेओ वि उवाओ जत्तीए अत्थपडिगहणं ॥ ति.प.१, ८३. वत्थू पमाणविसयं णयविसयं हवइ वत्थु-एयंसं । जं दोहि णिण्णयहूं तं णिवखेवे हवे विसयं ।। णाणासहाव-भरियं वत्थु गहिऊण तं पमाणेण । एयंतणासणटुं पच्छा णय-जुजणं कुणह ।। जम्हा णएण ण विणा होइ णररस सिय-वायपडिवत्ती। तम्हा सो णायची एयतं हंतुकामेण ॥ न. च. १७२, १७३, १७५. २. नाम्नो वक्तराभिमायो निमितं कथितं समम् । तस्मादन्यत्त जात्यादि निमित्तान्तरमिप्यते ॥
त. श्लो. वा. १, ५.
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