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________________ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं [१५ मवि आरंभप्पहुडि आ उवरमादो । संगहे सुद्ध-दव्वट्ठिए वि भाव-णिक्खेवस्स अत्थित्तं ण विरुज्झदे सुकुक्खि-णिक्खित्तासेस-विसेस-सत्ताए सब-कालमवट्टिाए भावन्भुवगमादो ति। णाम ठवणा दविए त्ति एस दवट्ठियस्स णिक्खेवो । भावो दु पज्जवहिय-परूवणा एस परमट्ठी ॥९॥ अणेण सम्मइ-सुत्तेण सह कधमिदं वक्खाणं ण विरुज्झदे ? इदि ण, तत्थ पजायस्सलक्खण-क्खइणो भावब्भुवगमादो। हित हैं, अतएव द्रव्यार्थिक नयमें भावनिक्षेप भी बन जाता है। यहां पर पर्यायकी गौणता और द्रव्यको मुख्यतासे भावनिक्षेपका द्रव्यार्थिक नयमें अन्तर्भाव समझना चाहिये। इसी प्रकार शुद्ध द्रव्यार्थिकरूप संग्रह नयमें भी भावनिक्षेपका सद्भाव विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, अपनी कुक्षिमें समस्त विशेष सत्ताओंको समाविष्ट करनेवाली और सदाकाल एकरूपसे अवस्थित रहनेवाली महासत्तामें ही 'भाव' अर्थात् पर्यायका सद्भाव माना गया है। अभेदरूपसे वस्तुको जब भी ग्रहण किया जायगा, तब ही वह वर्तमान पर्यायसे युक्त होगी ही, इसलिये वर्तमान पर्यायका अन्तर्भाव महासत्ता में हो जाता है। और शुद्ध संग्रह नयका महासत्ता विषय है, अतएव संग्रह नयमें भी भावनिक्षेपका अन्तर्भाव हो जाता है। यहां पर भी पर्यायकी गौणता और द्रव्यकी मुख्यता समझना चाहिये। शंका-'नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीनों द्रव्यार्थिक नयके निक्षेप हैं, और भाव पर्यायार्थिक नयका निक्षेप है। यही परमार्थ-सत्य है।' ॥९॥ सन्मतितर्कके इस कथनसे 'भावनिक्षेपका द्रव्यार्थिक नयमें अथवा संग्रह नयमें भी अन्तर्भाव होता है' यह व्याख्यान क्यों नहीं विरोधको प्राप्त होगा? ___विशेषार्थ-शंकाकारका यह अभिप्राय है, कि सन्मतिकारने भावनिक्षेपका केवल पर्यायार्थिक नयमें ही अन्तर्भाव किया है। परंतु यहांपर उसका द्रव्यार्थिक नयमें भी अन्तर्भाव किया गया है। इसलिये यह कथन तो सन्मतिकारके कथनसे विरुद्ध प्रतीत होता है। समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, सन्मतितर्कमें, पर्यायका लक्षण क्षणिक है इसे भावरूपसे स्वीकार किया गया है। अर्थात् सन्मतितर्कमें पर्यायकी विवक्षासे कथन किया है, और यहां पर वर्तमान पर्यायको द्रष्यसे अभिन्न मानकर कथन किया है। इसलिये कोई विरोध नहीं आता है। १ स. त. १, ६. नामोक्तं स्थापनाद्रव्यं द्रव्यार्थिकनयार्पणाद् । पर्यायार्पणाद भावस्तैासः सम्य. गीरितः॥त. श्लो. वा. १, ५.६९. नामाइतियं दव्यढियस्स भावो य पखवनयस्स । संगह-ववहारा पटमगस्स सेसा य इयरस्स ॥ वि. भा. ७५. पर्यायार्थिकनयेन पर्वायतत्वमधिगन्तव्यम्, इतरेषां नामस्थापनाद्रव्याणां द्रव्यार्थिकनयेन समान्यात्मकत्वात् । स. सि. १, ६. वृत्ति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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