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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १. ... तत्थ गम-संगह-ववहार-णएसु सव्वे एदे णिस्खेवा हवंति तव्विसयम्मि तम्भव-सारिच्छ-सामण्णम्हि सव्व-णिक्खेव-संभवादो। कथं दव्वट्टिय-णये भाव-णिक्खेवस्स संभवो ? ण, वट्टमाण-पज्जायोवलक्खियं दव्वं भावो इदि दव्वडिय-णयस्स वट्टमाण और व्यय हुआ करता है। इसीको स्वनिमित्तोत्पाद-व्यय कहते हैं। उसीप्रकार पर-निमित्तसे भी द्रव्यमें उत्पाद और व्ययका व्यवहार किया जाता है। जैसे, स्वर्णकारने कड़ेसे कुण्डल बनाया। यहां पर स्वर्णकारके निमित्तसे कड़ेरूप सोनेकी पर्याय नष्ट होकर कुण्डलरूप पर्यायका उत्पाद हुआ है और इसमें स्वर्णकार निमित्त है, इसलिये इसे पर-निमित्त उत्पाद-व्यय समझ लेना चाहिये । इसीप्रकार आकाशादि निष्क्रिय द्रव्योंमें भी पर-निमित्त उत्पाद और व्यय समझ लेना चाहिये, क्योंकि आकाशादि निष्क्रिय द्रव्य दूसरे पदार्थों के अवगाहन, गति आदिमें कारण पड़ते हैं, और अवगाहन, गति आदिमें निरन्तर भेद दिखाई देता है, इसलिये अवगाहन, गति आदिके कारण भी भिन्न होना चाहिये । स्थित वस्तुके अवगाहनमें जो आकाश कारण है उससे भिन्न दूसरा ही आकाश क्रिया-परिणत वस्तुके अवगाहनमें कारण है। इसतरह अवगाह्यमान वस्तुके भेदसे आकाशमें भेद सिद्ध हो जाता है, और इसलिये आकाशमें पर-निमित्तसे भी उत्पाद-व्ययका व्यवहार किया जाता है। इसीप्रकार धर्मादिक द्रव्यों में भी पर-निमित्तसे उत्पाद और व्यय समझ लेना चाहिये। इसप्रकार यह सिद्ध हो गया कि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा पदार्थ उत्पन्न भी होते हैं और नाशको भी प्राप्त होते हैं। इसप्रकार अनन्त-कालसे अनन्तपर्याय-परिणत होते रहने पर भी द्रव्यका कभी भी नाश नहीं होता है, और न एक द्रव्यके गुण-धर्म बदलकर कभी दूसरे द्रव्य-रूपही हो जाते हैं। अतएव द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा पदार्थ सर्वदा स्थिति-स्वभाव हैं ॥८॥ उन सात नयों में से नैगम, संग्रह और व्यवहार, इन तीन नयोंमें नाम, स्थापना आदि सभी निक्षेप होते हैं, क्योंकि, इन नयों के विषयभूत तद्भव-सामान्य और सादृश्य-सामान्यमें सभी निक्षेप संभव हैं। शंका-द्रव्यार्थिक नयमें भावनिक्षेप कैसे संभव है ? अर्थात् जिस पदार्थमें भावनिक्षेप होता है वह तो उस पदार्थकी वर्तमान पर्याय है, परंतु द्रव्यार्थिक नय सामान्यको विषय करता है, पर्यायको नहीं। इसलिये द्रव्यार्थिक नयमें, अर्थात् द्रव्यार्थिक नयके विषयभत पदार्थमें, जिसप्रकार दूसरे निक्षेप घटित हो जाते हैं उसप्रकार भावनिक्षेप घटित नहीं हो सकता है। भावनिक्षेपका अन्तर्भाव तो पर्यायार्थिक नयमें संभव है? ... समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको ही भाव कहते हैं, और वह वर्तमान पर्याय भी द्रव्यकी आरम्भसे लेकर अन्ततककी पर्यायों में आ ही जाती है।तथा द्रव्य, अर्थात् सामान्य, द्रव्यार्थिक नयका विषय है जिसमें द्रव्यकी त्रिकालवर्ती पर्यायें अन्तर्नि १. णेगम-संगह-ववहारा सव्वे इच्छंति । कसाय-पाहुड-चुण्णि (जयध. अ.) पृ. ३०. २- सामान्यं द्वेधा, तिर्यगूलता-भेदात् । सदृश-परिणामस्तिर्यक् , खण्ड-मुण्डादिषु गोत्ववत् । परापरविवर्तच्यापि-द्रव्यमूर्खता, मुदिव स्थासादिषु । प. मु. ४, ३-५. Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org www.jainelibrary.
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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