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________________ संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं [३ उल्लंघन करके केवलज्ञानसे विभूषित हैं, इसलिये वे अनिन्द्रिय हैं। भावेन्द्रियोंकी तरह इन दोनों परमात्माओंके भाव-मन भी नहीं पाया जाता है, क्योंकि तेरहवें गुणस्थानमें क्षायोपशमिक झानोंका अभाव है। अथवा, 'अणिदिय' पद अतीन्द्रिय के अर्थमें भी आता है, जिससे यह अर्थ निकलता है कि वे हमारे इन्द्रिय-जन्य ज्ञानसे नहीं जाने जा सकते हैं, अर्थात् वे दोनों परमात्मा इन्द्रियोंके अगोचर हैं। ' अणिदिय' पदका अर्थ अनिन्दित भी होता है, जिसका यह तात्पर्य है कि सिद्ध और अरहंत परमेष्ठी निर्दोष होनेके कारण सबके द्वारा अनिन्दित है । निन्दा उसकी की जाती है जिसमें किसी प्रकारके दोष पाये जावें, जिसका आचरण दूसरों के लिये अहितकर हो । परंतु उक्त दोनों परमेष्ठी कामादि दोषोंसे रहित होनेके कारण कोई भी उनकी निन्दा नहीं कर सकता है, इसलिये वे अनिन्दित हैं। अनुपम-प्रत्येक वस्तु अनन्त-धर्मात्मक है। उसके स्वरूप-निर्णयके लिये हम जो कुछ भी दृष्टान्त देकर, शब्दोंद्वारा, उसे मापनेका प्रयास करते हैं, उस मापनेको उपमा कहते हैं। 'उप' अर्थात् उपचारसे जो 'मा' माप करे वह उपमा है । उपचारसे मापनेका भाव यह है कि एक वस्तुके गुण-धर्म किसी दूसरी वस्तुमें तो पाये नहीं जाते हैं, इसलिये आकार, दीप्ति, स्वभाव आदि धर्मों में थोड़ी बहुत समानता होने पर भी किसी एक वस्तुके द्वारा दूसरी वस्तुका ठीक कथन तो नहीं हो सकता है, फिर भी दृष्टान्तद्वारा दूसरी वस्तुका कुछ न कुछ अनुभव या परिक्षान अवश्य हो जाता है। इसलिये इस प्रक्रियाको उपमामें लिया जाता है। परंतु यह प्रक्रिया उन्हीं पदार्थों में घटित हो सकती है जो इन्द्रियगोचर हैं । सिद्धपरमेष्ठी तो अतीन्द्रिय हैं। अरहंत परमेष्ठीका शरीर इन्द्रियगोचर होते हुए भी उनकी पुनीत आत्माका हम संसारी जन इन्द्रियज्ञानके द्वारा साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं। इसलिये उपमाद्वारा उनका परिक्षान होना असंभव है। उन्हें यदि कोई भी समुचित उपमा दी जा सकती है, तो उन्हींकी दी जा सकती है जो कि सर्वथा छद्मस्थ शानियोंके अप्रत्यक्ष हैं। अतः सिद्ध और अरहंत परमात्माको अनुपम अर्थात् उपमा-रहित कहना सर्वथा युक्ति-युक्त है। 'उप' का अर्थ पास भी होता है, अर्थात् ऐसा कोई पदार्थ, जिसके लिये उसकी उपमा दी जाती हो, पासका अर्थात् उसका ठीक तरहसे बोध करानेवाला, होना चाहिये । परंतु संसारमें ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जिसके द्वारा हम सिद्ध और अरहंत परमेष्ठीके स्वरूपकी तुलना कर सकें । अतएव वे अनुपम हैं। आत्मोत्पन्न सुख-जिसके द्वारा आत्मा, शान्ति, संतोष या आनन्दका चिरकालतक अनुभव करे उसे सुख कहते हैं। संसारी जीव कोमल स्पर्शमें, विविध-रस-परिपूर्ण उत्तम सुस्वादु भोजनके स्वादमें, वायुमण्डलको सुरभित करनेवाले नानाप्रकारके पुष्प, इत्र, तैल १ लोके तत्सदृशो यर्थः कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते । उपमीयत तयेन तस्मान्निरुपमं स्मृतम् । जयध. अ. पृ. १२४९. २ अइसयमाद-समुत्थं विसयातीद अणोवममणतं । अबुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥ प्रवच.१,१३. बाधा-सहियं विच्छिण्णं बंध-कारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।। प्रवच. १, ७६. कर्म-पर-वशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये। पाप-बीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकाङ्कणा स्मृता ॥ रत्नक. १, १२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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