SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं . विशेषार्थ-'सिद्ध ' शब्दका अर्थ कृतकृत्य होता है, अर्थात्, जिन्होंने अपने करने योग्य सब कार्योंको कर लिया है, जिन्होंने अनादिकालसे बंधे हुए ज्ञानावरणादि कर्माको प्रचण्ड ध्यानरूप अग्निके द्वारा भस्म कर दिया है, ऐसे कर्म-प्रपंच-मुक्त जीवोंको सिद्ध कहते हैं। अरहंत परमेष्ठी भी चार घातिया काँका नाश कर चुके हैं, इसलिये वे भी घातिकम-क्षय सिद्ध हैं। विशेषणसे उनके मतका निराकरण हो जाता है जो अनादि कालसे ही ईश्वरको कमसे अस्पृष्ट मानते हैं। अथवा, 'षिधु' धातु गमनार्थक भी है, जिससे सिद्ध शब्दका यह अर्थ होता है, कि जो शिव-लोकमें पहुंच चुके हैं, और वहांसे लौट कर कभी नहीं आते। इस कथनसे मुक्त जीवोंके पुनरागमनको मान्यता का निराकरण हो जाता है । अथवा, 'विधु' धातु 'संराधन' के अर्थमें भी आती है, जिससे यह अर्थ निकलता है, कि जिन्होंने आत्मीय गुणोंको प्राप्त कर लिया है, अर्थात् , जिनकी आत्मामें अपने स्वाभाविक अनन्त गुणोंका विकाश है। इस व्याख्यासे उन लोगों के मतका निरसन हो जाता है, जो मानते हैं कि, 'जिसप्रकार दीपक धुझ जाने पर, न वह पृथ्वीकी ओर नीचे जाता है, न आकाशकी ओर ऊपर ही जाता है, न किसी दिशाकी ओर जाता है और न किसी विदिशाकी ओर ही, किंतु तेलके क्षय हो जानेसे केवल शान्ति अर्थात् नाशको ही प्राप्त होता है । उसीप्रकार, मुक्तिको प्राप्त होता हुआ जीव भी न नीचे भूतलकी ओर जाता है, न ऊपर नभस्तलकी ओर, न किसी दिशाकी ओर जाता है, और न किसी विदिशाकी ओर ही। किंतु स्नेह अर्थात् रागपरिणतिके नष्ट हो जानेपर, केवल शान्ति अर्थात् नाशको ही प्राप्त होता है।* अनन्त-जिसका अन्त अर्थात् विनाश नहीं है उसे अनन्त कहते हैं। अथवा, 'अन्त' शब्द सीमा-वाचक भी है, इसलिए जिसकी सीमा न हो उसे भी अनन्त कहते हैं। अथवा, अनन्त पदार्थोंके जाननेवालेको भी अनन्त कहते हैं। अथवा, अनन्त कर्मों के अंशोंके जीतनेवालेको भी अनन्त कहते हैं । अथवा, अनन्त-ज्ञानादि गुणोंसे युक्त होनेके कारण भी अनन्त कहते हैं। अनिन्द्रिय-जिसके इन्द्रियां न हों, उसे अनिन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियां अर्थात् भावेन्द्रियां छद्मस्थ दशामें पाई जाती हैं, परंतु सिद्ध और अरहंत परमात्मा छद्मस्थ दशाको १ आदौ सकार-प्रयोगः सुखदः । तथा च सही सुखदाहदी'। अलं. चिं. १, ४९. 'माङ्गलिक आचायों महतः शास्त्रीवस्य मङ्गलार्थ सिद्ध शब्दं आदितः प्रयुङ्क्ते'। पात. महाभा. पृ. ५७. सितं बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं दग्धं जाज्वल्यमान-शुक्लथ्यानानलेन यस्ते सिद्धाः। अथवा, ‘षिधु गतौ' इति वचनात् सेधन्ति स्म अपुनरावृत्या निवृतिपुरीमगच्छन् । अथवा, विधु संराद्धौ ' इति वचनात सेधन्ति सिद्धयन्ति स्म निष्ठितार्था भवन्ति स्म । अथवा, · षिधृञ् शास्त्रे माङ्गल्ये च ' इति वचनात् सेधन्ति स्म शासितारोऽभूवन् माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्म इति सिद्धाः । अथवा, सिद्धाः नित्याः अपर्यवसान-स्थितिकत्वात् । प्रख्याता वा भव्यैरुपलब्धगुणसंदोहत्वात् । आह च, मातं सितं येन पुराणकर्भ यो वा गतो निर्वृति-सौध-मूनि । ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठिताओं यःसोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे ॥ भग. सू. १, १, १, ( टीका ) |* धवला, अ. पृ. ४७४. २ नास्यान्तोऽस्तोत्यनन्तः निरन्वयविनाशेनाविनश्यमानः । नास्यान्तः सीमास्त्यनन्तः केवलात्मनोऽनन्तत्वात् । अनन्तार्थ-विषयत्वाद्वानन्तः अनन्तार्थ-विषय.ज्ञान-स्वरूपत्वात्। अनन्त-काश-जयनादनन्तः । अनन्तानि वा ज्ञानादानि यस्येत्यनन्तः। आमि. रा. कोष । ३ न य विज्जइ तग्गहणे लिंगं पि अणिदियत्तणओ'। पा. स. म. कोष (आणिदिअ )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy