SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२) आगामी गर्मीकी छुट्टियों में जजसाहब मुझे लेकर भेलसा पहुंचे और वहां सेठ राजमलजी बडजात्या व श्रीमान तखतमलजी वकीलके सहयोगसे सेठजीके उक्त दानका ट्रस्ट रजिस्ट्री करा लिया गया और यह भी निश्चय हो गया कि उस द्रव्यसे श्री धवलादि सिद्धान्तोंके संशोधन प्रकाशनका कार्य किया जाय । गर्मीके पश्चात् अमरावती लौटने पर मुझे श्रीमन्त सेठजीके दानपत्रकी सद्भावनाको क्रियात्मक रूप देनेकी चिन्ता हुई। पहली चिन्ता धवल जयधवलकी प्रतिलिपि प्राप्त करने की हुई। उस समय इन ग्रंथोंको प्रकाशित करनेके नामसे ही धार्मिक लोग चौकन्ने हो जाते थे और उस कार्यके लिये कोई प्रतिलिपि देनेके लिये तैयार नहीं थे। ऐसे समयमें श्रीमान सिंघई पन्नालालजीने व अमरावती पंचायतने सत्साहस करके अपने यहांकी प्रतियोंका सदुपयोग करनेकी अनुमति दे दी। __ इन प्रतियोंके सूक्ष्मावलोकनसे मुझे स्पष्ट हो गया कि यह कार्य अत्यन्त कष्टसाध्य है क्योंकि ग्रंथोंका परिमाण बहुत विशाल, विषय अत्यन्त गहन और दुरूद्द, भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत, और प्राप्य प्रति बहुत अशुद्ध व स्खलन-प्रचुर ज्ञात हुई। हमारे सन्मुख जो धवल और जयधवलकी प्रतियां थीं उनमेंसे जयधवलकी प्रति सीताराम शास्त्रीकी लिखी हुई थी और दूसरीकी अपेक्षा कम अशुद्ध जान पड़ी । अतः मैंने इसके प्रारम्भका कुछ अंश संस्कृत रूपान्तर और हिन्दी भाषान्तर सहित छपाकर चुने हुए विद्वानोंके पास इस हेतु भेजा कि वे उसके आधारसे उक्त ग्रंथोंके सम्पादन प्रकाशनादिके सम्बन्धमें उचित परामर्श दे सकें। इस प्रकार मुझे जो सम्मतियां प्राप्त हो सकी उनपरसे मैंने सम्पादन कार्यके विषयमें निम्न निर्णय किये १. सम्पादन कार्य धवलासे ही प्रारम्भ किया जाय, क्योंकि, रचना-क्रमकी दृष्टिले तथा प्रचलित परंपरामें इसीका नाम पहले आता है। २. मूलपाठ एक ही प्रतिके भरोसे न रखा जाय । समस्त प्रचलित प्रतियां एक ही आधुनिक प्रतिकी प्रायः एक ही हाथकी नकलें होते हुए भी उनमेंसे जितनी मिल सकें उनका उपयोग किया जाय तथा मूडविद्रीकी ताड़पत्रकी प्रतिसे मिलान करनेका प्रयत्न किया जाय, और उसके अभाव में सहारनपुरकी प्रतिके मिलानका उद्योग किया जाय । ३. मूलके अतिरिक्त हिन्दी अनुवाद दिया जाय, क्योंकि, उसके विना सर्व स्वाध्यायप्रेमियोंको ग्रंथराजसे लाभ उठाना कठिन है। संस्कृत छाया न दी जाय क्योंकि एक तो उस ग्रंथका कलेवर बहुत बढ़ता है; दुसरे उससे प्राकृतके पठन पाठनका प्रचार नहीं होने पाता, क्योंकि, लोग उस छायाका ही आश्रय लेकर बैठ रहते हैं और प्राकृतकी ओर ध्यान नहीं देते। और तीसरे जिन्हें संस्कृतका अच्छा ज्ञान है उन्हें मूलानुगामी अनुवादकी सहायतासे प्राकृतके समझने में भी कोई कठिनाई नहीं होगी। १. संस्कृत छाया न देनेसे जो स्थानकी बचत होगी उसमें अन्य प्राचीन जैन ग्रंथों में से तुलनात्मक टिप्पण दिये जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy