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________________ झाक कथन यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी । सन् १९२५ में मैंने कारंजाके शास्त्रभंडारोंका अवलोकन किया और वहांके ग्रंथोंकी सूची बनाई। वहां अपभ्रंश भाषाका बहुतसा अश्रुतपूर्व साहित्य मेरे दृष्टिगोचर हुआ। उसको प्रकाशमें लानेकी उत्कंठा मेरे तथा संसारके अनेक भाषा-कोविदोंके हृदयमें उठने लगी। ठीक उसी समय मेरी कारंजाके समीप ही अमरावती, किंग एडवर्ड कालेजमें नियुक्ति हो गई और मेरे सदैवके सहयोगी सिद्धांतशास्त्री पं. देवकीनन्दनजीके सुप्रयत्नसे व श्रीमान् सेठ गोपाल सावजी चवरे व बलात्कारगण मन्दिरके अधिकारियोंके सदुत्साहसे उन अपभ्रंश ग्रंथोंके सम्पादन प्रकाशनका कार्य चल पड़ा, जिसके फलस्वरूप पांच छह अत्यन्त महत्वपूर्ण अपभ्रंश काव्योंका अब तक प्रकाशन हो चुका है। मूडचिद्रीके धवलादि सिद्धान्त ग्रंथोंकी कीर्ति मैं बचपनसे ही सुनता आ रहा हूं। सन् १९२२ में मैंने जैनसाहित्यका विशेषरूपसे अध्ययन प्रारम्भ किया, और उसी समयके लगभग इन सिद्धान्त ग्रंथोंकी हस्तलिखित प्रतियोंके कुछ कुछ प्रचारकी चर्चा सुनाई पड़ने लगी। किन्तु उनके दर्शनोंका सौभाग्य मुझे पहले पहले तभी प्राप्त हुआ जब हमारे नगरके अत्यन्त धर्मानुरागी, साहित्यप्रेमी श्रीमान सिंघई पन्नालालजीने धवल और जयधवलकी प्रतिलिपियां कराकर यहांके जैनमन्दिरमें विराजमान कर दीं। अब हृदयमें चुपचाप आशा होने लगी कि कभी न कभी इन ग्रंथोंको प्रकाशमें लानेका अवश्य सुअवसर मिलेगा। __सन् १९३३ के दिसम्बर मासमें अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद्का वार्षिक अधिवेशन इटारसीमें हुआ और उसके सभापति हुए मेरे परमप्रिय मित्र बैरिस्टर जमनाप्रसादजी सबजज । पहले दिनके जलसेके पश्चात् रात्रिके समय हम लोग एक कमरे में बैठे हुए जैन साहित्यके उद्धारके विषयमें चर्चा कर रहे थे। जजसाहब दिनभरकी धूमधाम व दौड़ धूपसे थककर सुस्तसे लेटे हुए थे। इसी बीच किसीने खबर दी कि भेलसानिवासी सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी भी अधिवेशनमें आये हुए हैं और वे किसी धार्मिक कार्यमें, सम्भवतः रथ चलानेमें, कुछ द्रव्य लगाना चाहते हैं । इस खबरसे जजसाहबका चेहरा एकदम चमक उठा और उनमें न जाने कहांकी स्फूर्ति आ गई । वे हम लोगोंसे विना कुछ कहे सुने वहांसे चल दिये । रातके कोई एक बजे लौटकर उन्होंने मुझे जगाया और एक पुर्जा मेरे हाथमें दिया जिसमें सेट लक्ष्मीचन्द्रजीने साहित्योद्धारके लिये दस हजारके दानकी प्रतिज्ञा की थी। इस दानके उपलक्ष्यमें दूसरे दिन प्रातःकाल उपस्थित समाजने सेठजीको श्रीमन्त सेठकी पदवीसे विभूषित किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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