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महाबंधे पदेसबंधाहियारे पदे० असं०गु० । सेसाणं ओघभंगो। पंचिंदि०तिरिक्खअपज. सव्वपगदीणं ओघं । एवं सव्वअपज्जत्तगाणं सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं च ।।
६५. मणुसेसु ओघभंगो । देवाणं णिरयभंगो।एवं भवण-वाणवेंतर-जोदिसिय० । सोधम्मीसाण याव सहस्सार त्ति एवं चेव । णवरि दोगदि० सरिसं पदेसग्गं । एवं सव्वदेवाणं ।
६६. पंचिंदि०-तस०२-काययोगि०-ओरा०-ओरा०मिस्स-कम्मइ०-णस०कोधादि०४-मदि-सुद०-असंन०-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-छल्लेस्सा०-भवसि०-अ भवसि०मिच्छा०-सण्णि०-असण्णि०-आहार०-अणाहारग त्ति ओघभंगो। णवरि मदि-सुद०अब्भव०-मिच्छा०-असण्णि. वेउब्धियछक्कं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणिभंगो।
६७. पंचमण-तिण्णिवचि० सत्तण्णं क० णिरयभंगो। सव्वत्थोवा तिरिक्व०मणुस० जह० पदे । देवग० जह० पदे० विसे० । णिरयग० जह० पदे० विसे० । सव्वत्थोवा वेउ० जह० पदे० । तेजा. जह० पदे० विसे । कम्म० जह० पदे. विसे०। आहार० जह० पदे० विसे० । ओरा० जह० पदे० विसे० । एवं अंगो० ।
है। उससे वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है।पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तक सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें जानना चाहिए।
६५. मनुष्योंमें ओघके समान भङ्ग है । देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार भवनवासी,व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए । सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि दो गतियोंका सदृश प्रदेशाग्र करना चाहिए । इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए।
६६. पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, काययोगी, औदारिककाययोगी औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदो, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छह लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें वैक्रियिकषट्कका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियोंके समान है।
१७. पाँचों मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। तिर्यश्चगति और मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे देवगतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे नरकगतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे तैजसशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे आहारक शरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । इसी
१. ता० प्रतौ 'ज. मिस्से० [विसे०] । णिरय०' इति पाठः । Jain Education International
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