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________________ ७७ अपाबहुगपरूवणा गंध-रस-फासाणं पंचअंतराइगाणं च उकस्सभंगो। यथा गदी तथा आणुपुव्वी । सव्वत्थोवा तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेगाणं जह० पदे । थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साधारण० जह० पदे० विसे० । सेसाणं पगदीणं जहण्णयं पदेसग्गं तुल्लं० । णीचुच्चागोद. जह० पदे० तुल्लं। ६३. णिरयेसु सत्तणं क० ओघभंगो । सव्वत्थोवा तिरिक्ख० जह० पदे । मणुस० जह० पदे० विसे० । एवं आणु० । वण्ण०४ उक्कस्सभंगो। सेसाणं णामाणं जहण्णयं पदेसग्गं तुल्लं० । एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि सत्तमाए सव्वत्थोवा तिरिक्ख०' । मणुस० जह० पदे० असं०गु० । एवं आणु०-दोगोद० । ६४. तिरिक्खेसु ओघभंगो । एवं पंचिंदियतिरिक्खाणं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियजोणिणीसु । [णवरि जोणिणीसु] सव्वत्थोवा तिरिक्ख० जह० पदे । मणुस० जह० पदे० विसे । णिरय-देवगदि० जह० पदे. असं०गु० । सव्वत्थोवा चदुण्णं जादीणं [जह० पदे०] एइंदि० जह० पदे० विसे । सव्वत्थोवा ओरालि. जह ० पदे० । तेजा. जह० पदे. विसे० । कम्म० जह० पदे० विसे । वेउवि० जह० पदे० असं गु० । सव्वत्थो० ओरालि अंगो० जह० पदे । वेउ०अंगो० जह० रस, स्पर्श और पाँच अन्तरायोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। जिस प्रकार चार गतियोंके जघन्य प्रदेशाग्रका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार चार आनुपूर्वियोंके जघन्य प्रदेशागका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशाग्र तुल्य है । तथा नीचगोत्र और उच्चगोत्रका जघन्य प्रदेशाग्र परस्परमें तुल्य है । ६३.. नारकियोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशाम सबसे स्तोक है। उससे मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। इसी प्रकार दोनों आनुपूर्वियोंके जघन्य प्रदेशाग्रका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । वर्णचतुष्कका भङ्ग उत्कृष्टके समान ह । नामकमका शेष प्रकृतियाका जघन्य प्रदेशाग्र तुल्य है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । उससे मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार दो आनुपूर्वी और दोनों गोत्रोंके जघन्य प्रदेशाग्रका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। ६४. तिर्यश्चोंमें ओधके समान भङ्ग है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तियञ्च, पञ्चेन्द्रिय तियश्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियों में तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । उससे मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे नरकगति और देवगतिका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। चार जातियोंका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । उससे एकेन्द्रियजातिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । उससे तैजसशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। उससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक १. आ० प्रती 'सबदा तिरिक्व ' इति पाठः । २. आ० प्रती 'पदे । सम्बावा जह' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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