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________________ ७६ अपाबहुगपरूवणा सेसाणं ओघो । दोवचिजोगीसे एवं चेव । णवरि बीइंदिया सामि० । वेउ०-वेउ०मि० देवोपं । ६८. आहार-आहार मि० पंचणा०-छदंस०-पंचंत० ओघ । सव्वत्थोवा साद० जह० पदे० । असाद० जह० पदे० विसे० । सव्वत्थोवा दुगुं० जह० पदे० । भय० जह० पदे. विसे । हस्स० जह० पदे० विसे० । रदि० जह० पदे. विसे । पुरिस० जह० पदे० विसे । सोग. जह० पदे. विसे० । अरदि० जह० पदे० विसे । माणसंज जह० प० विसे० । कोधसंज० जह० पदे० विसे० । मायासंज. जह० प० विसे० । लोभसंज० जह० पदे० विसे० । वण्ण०४ ओघभंगो। सव्वत्थोवा थिर-सुभ-जस० जह० पदे० । अथिर-असुभ अजस • जह० पदे० विसे० । एवं मणपज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०। ६६. इथिवे. पंचिंदियतिरिक्खजोणिणिभंगो। पुरिसवेदे पंचिंदियतिरिक्खभंगो । अवगदवे. पंचणा०-चदुदंस०-पंचंत. उक्करसभंगो । सव्वत्थोवा माणसंज जह० प्रकार अङ्गोपाङ्गोंके जघन्य प्रदेशापका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । दो वचनयोगी जीवों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि द्वीन्द्रिय जीव स्वामी हैं। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है। ६८. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका भङ्ग ओघके समान है । सातावदनीयका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । उससे असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । जुगुप्साका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । उससे भयका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे हास्यका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे रतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे पुरुपवेदका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे शोकका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अरतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे मानसंज्वलनका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका जान्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। वर्णचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। स्थिर, शुभ और यश कीर्तिका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । उससे अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवों में जानना चाहिए। ६६. स्त्रीवेदी जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियोंके समान भङ्ग है। पुरुषवेदी जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय तियंञ्चोंके समान भङ्ग है । अपगतधेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। मानसंज्वलनका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक १. ता. प्रतौ से [साणं ओघो]। दोवचिजोगीसु' इति पाठः। २. ता० प्रती 'सामि० (१) वेउ०' इति पाठः । ३. ता. प्रतौ 'ज०प० ।.../अथिरअसुभ जस०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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