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________________ ८० महाबंधे पदेसबंधाहियारे पदे० । कोधसंज० जह० पदे० विसे० । मायासंज० जह० पदे० विसे । लोभसंज० जह० पदे० विसे। १०१. विभंगे सत्तण्णं कम्माणं ओघभंगो। सव्वत्थोवा तिरिक्ख० जह० पदे । मणुस० जह० पदे० विसे० । णिरयगदि-देवगदि० जह० पदे० विसे । सव्वत्थोवा ओरालि. जह० पदे। तेजा० जह० पदे० विसे। कम्म० जह० पदे० विसे० । वेउ० जह० पदे० विसे । एवं [वेउ०] अंगोवंग० । आणुपु० गदिभंगो । एवं सेसाणं ओघभंगो। १०२. आभिणि-सुद-ओधि० सत्तण्णं कम्माणं ओघमंगो । सव्वत्थोवा मणुसग० जह० पदे० । देवगदि० जह० पदे० विसे । एवं आणु० । वण्ण०४ ओघभंगो। एवं ओधिदं०-सम्मा०-खइग०-वेदग०-उवसम० । सासणे सव्वत्थोवा तिरिक्ख० जह० पदे० । मणुस० जह० पदे० विसे० । देवगदि० जह० असंगु० । एवं आणु० । सव्वत्थोवा ओरा० जह० पदे० | तेजा० जह० पदे० विसे० । कम्म० जह० पदे० विसे० । वेउ० जह० पदे० असं०गु० । सम्मामि० सत्तणं कम्माणं है। उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। १०१. विभङ्गज्ञानमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे: देवगतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे तैजसशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। इसी प्रकार दो आङ्गोपाङ्गोंके जघन्य प्रदेशाग्रका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । आनुपूर्वियोंका भङ्ग चारों गतियोंके समान है । इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। १०२. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कोका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे देवगतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । इसी प्रकार दो आनुपूर्वियोंके जघन्य प्रदेशागका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । वर्णचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में जानना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों में तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे देवगतिका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इसी प्रकार तीन आनुपूर्वियोंके जघन्य प्रदेशाग्रका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे तैजसशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वैक्रियिक शरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। १. ता. प्रतौ 'कम्म० [ जह० पदे. विसे० ]। ...वेउब्वि०] उ० ज०' आ० प्रतौ कम्म० जह. पदे० विसे । उ० जह० इति पाठ• । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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