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________________ अप्पाबहुगपरूवणा ८६. वेदगस० सव्वट्ठभंगो । णवरि सव्वत्थोवा मणुसगदि० उक्कस्सओ पदेसबंधो । देवगदि० उक० पदे० विसे० । एवं आणु० । ८७. सासणसम्मादिट्ठीसु सत्तण्णं कम्माणं मदि०भंगो। णवरि मिच्छ०णस० वञ्ज । णामाणं सव्वत्थोवा तिरिक्खग०-मणुसग० उ० पदे० । देवगदि० उक० पदे० विसे० । वण्ण०४ ओघं । सेसं सरिसं । ८. सम्मामि० सत्तण्णं क० सव्वट्ठ०भंगो। सव्वत्थोवा मणुसग० उक्क० पदे० । देवगदि. उक्क० विसे०] । एवं आणु० । वण्ण०४ ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं उकस्सं समत्तं। ८६. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओषे० आदे० । ओघे० णाणावरणीयाणं [दंसणावरणीयाणं] यथा उक्कस्सं सत्थाणअप्पाबहुगं तथा जहण्णं पि कादव्यं । सादासादाणं दोणं पि जहण्णयं पदेसग्गं तुल्लं । ६०. सव्वत्थोवा अपच्चक्खाणमाणे जह० पदे० । कोधे० जह० पदे० विसे । माया • जह० पदे० विसे० । लोभ० जह० पदे० विसे० । एवं पच्च ८६. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में सर्वार्थसिद्धिके देवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सबसे स्तोक है। उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। इसी प्रकार आनुपूर्वियोंके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए । ८७. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेद इन दो प्रकृतियोंको छोड़कर अल्पबहुत्व जानना चाहिए । नामकर्ममें तिर्यश्चगति और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । वर्णचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशागका अल्पबहुत्व समान है। ८८. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सात कोंका भङ्ग सर्वार्थसिद्धिके देवोंके समान है । मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। इसी प्रकार दो आनुपूर्वियोंके उत्कृष्ट प्रदेशानका अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए । वर्णचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ८६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयका जिस प्रकार उत्कृष्ट स्वस्थान अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार जघन्य भी करना चाहिए। सातावेदनीय और असातावेदनीय दोनोंका ही जघन्य प्रदेशान तुल्य है। ६०. अप्रत्याख्यानावरणमानका जघन्य प्रदेशाय सबसे स्तोक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य १. ता० प्रती एवं । आणु० घण्णः ०४ आध' इति पाठः। २. ता० प्रती 'माणी ज० पदे । [काधे०] ज० ५० विसे । माया०' आ० प्रती '-माणे जह० पदे । माया' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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