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महाबंध पदेसबंधाहियारे
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फासाणं ओघ । सेसाणं सरिसं पदेसग्गं । एवं ओधिदं०० - सम्मा० - खड्ग ० -उवसम० । मणपज्ज० सत्तणं क० ओघं । णामाणं आहारकायजोगिभंगो । एवं संजद - सामाइ ० छेदो० - परिहार | संजदासंजद ० आहारकायजोगिभंगो सुहुमसंप० चॉदसण्णं ओघं । ८५. असंजद ० - तिणिले० सत्तणं कम्माणं णिरयभंगो । णामाणं तिरिक्खोघं । तेउ-पम्माणं सत्तणं क० देवभंगो । णामाणं ओघं । णवरि तेऊए सव्वत्थोवा अप्पसत्थविहायगदि - दुस्सर उकस्सं० । पसत्थविहायगदि - सुरसर० उक्कस्स० पदे० विसेसाहियं । पम्मा सव्वत्थोवा दोग दि० | देवगदि० उक्क० पदे० विसे० । एवं आणु० । सव्वत्थोवा आहार उक्क० पदे० । ओरालि० उक्क० पदे० विसे० । वेउव्वि० उक्क० पदे० विसे० । तेजाक उक्क० पदे० विसे० । कम्म० उक्क० पदे० विसे० । सव्वस्थोवा पंचसंठा० उक्क० पदे ० | समचदु० उक्क० प० विसे० | अंगोवं० सरीरभंगो । सव्वत्थोवा अप्पसत्थ० - दूभग- दुस्सर-अणादें० उक्क० पदे० । तप्पडिपक्खाणं उक्क० पदे० विसे० । सुक्काए ओघं । णवरि सव्वत्थोवा मणुसग ० उक्क० पदे० । देवग० उक्क० पदे० विसे० । एवं आणु० ।
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गन्ध, रस और स्पर्शका भङ्ग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंका समान प्रदेशाग्र है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसंम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग आहारक काययोगी जीवोंके समान है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। संयतासंयत जीवोंमें आहारककाय योगी जीवोंके समान भङ्ग है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें चौदह प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । ८५. असंयत और कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्योंके समान है । पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओके समान है । इतनी विशेषता है कि पीतलेश्यामें अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका उत्कृष्ट प्रदेशाम सबसे स्तोक है। उससे प्रशस्त विहायोगति और सुस्वरका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है। पद्मश्यामें दो गतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशाम सबसे स्तोक है। उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेश विशेष अधिक है । इसी प्रकार आनुपूर्वियोंके उत्कृष्ट प्रदेशामका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । आहारकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशा सबसे स्तोक है। उससे औदारिक शरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है । पाँच संस्थानोंका उत्कृष्ट प्रदेशाय सबसे स्तोक है। उससे समचतुरस्र संस्थानका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है । आङ्गोपाङ्गोंका भङ्ग शरीरोंके समान है । अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है । शुक्ललेश्या में ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाय सबसे स्तोक है। उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है । इसी प्रकार आनुपूर्वियोंके उत्कृष्ट प्रदेशामका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।
१. ता० प्रतौ० 'ओघं' इति पाठः । २. 'परिहार • संजदासंजद०' इति पाठः । ३. ता० प्रतौ 'अप्पसत्थवि [हा] यगदि' इति पाठः ।
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