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________________ ७२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे याव इत्थिः । णqस० उक्क० पदे० विसे । माणसंज. उक्क० पदे० विसे० । कोधसंज० उक्क० पदे० विसे० । मायासं०-लोभसंज० उक्क० पदे० विसे० । पुरिस० उक० पदे० संखेज्जगु० । णामाणं ओघं । ____७६. अवगदवेदेसु पंचणा०-पंचंत० ओघं । सव्वत्थोवा केवलदं० उक्क० पदे । ओघिदं० उक० पदे० अणंतगु० । अचक्खु० उक० पदे० विसे० । चक्खु० उक्क० पदे० विसे । सव्वत्थोवा कोधसंज० उक्क० पदे०। माणसंज० उक्क० पदे० विसे० । मायासंज० उक० पदे० विसे । लोभसंज०' उक० पदे० संखेंजगु० । ८०. कोधकसाइसु ओवं । णवरि मोहे जाव इत्थि० । गqस० उक्क० पदे. विसे० | माणसं० उक० पदे० संखेंज्जगु० । कोधसंज० उ० पदे० विसे० । मायासंज. उक्क० पदे. विसे । लोभसंज० उक० पदे० विसे० । पुरिस० उक० पदे० विसे० । ___८१. माणकसाइसु ओघ । णवरि मोहे याव इत्थि० । णबुंस० उक्क० पदे० विसे० । कोधसंज० उक० पदे० संखेज्जगु० । माणसंज० उक्क० पदे० विसे० । समान है । मोहनीय कर्मका भङ्ग स्त्रीवेदके अल्पबहुत्वके प्राप्त होने तक ओघके समान है। स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रसे नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। ७६. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका भङ्ग ओघके समान है। केवलदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे अवधिदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है। उससे अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे चक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। २०. क्रोधकपायवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मोहनीय कर्ममें स्त्रीवेदका अल्पबहुत्व प्राप्त होनेतक ही ओघके समान भङ्ग जानना चाहिये । स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशाप्रसे नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। ८१. मानकषायवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्ममें स्त्रीवेदके अल्पबहुत्वके प्राप्त होनेतक ही ओघके समान भङ्ग जानना चाहिए। आगे स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रसे नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे क्रोधसंज्वलन का उत्कृष्ट प्रदेशाम संख्यातगुणा है। उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। १. ता. प्रतौ 'मायसंज. उ. विसे । * मायसंज० उ० विसे० * [चित्रान्तर्गतपाठः पुनरुक्तः] लोभसंज०' इति पाठः। २. ता० प्रती 'मोहे जोग [याव] इस्थि० णपुं० उक्त०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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