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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे विसे । कम्म० उक० पदे. विसे० । संठाण-संघडण-वण्ण०४-दोआणु०'दोविहा०थिरादिछयुग० तुल्ला । दोआउ०-दोगोदार्ण उक्क० पदे० विसे० । एवं सत्तसु पुढवीसु । ७४. तिरिक्खेसु सत्तणं कम्माणं णिरयभंगो। णामाणं ओषभंगो। णवरि सव्वत्थोवा जस० उक्क० । अज० उक० विसे० । एवं सव्वपंचिंदियतिरिक्खाणं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु सत्तण्णं क० णिरयभंगो। णवरि मोहे. अण्णदरवेदे उ० प० विसे० । सव्वत्थोवा मणुसग । तिरि० उ० विसे । एवं णामाणं ओघं । णवरि सव्वत्थोवा जस० । अज० उ० विसे० । एवं सव्वअपज्जत्तयाणं सव्वएइंदि० पंचकायाणं । मणुसाणं ओघं । ७५. देवेसु सत्तण्णं कम्माणं णिरयभंगो । णामाणं ओघो । णवरि देवगदिपाओग्गाओ णादव्याओ। सणक्कुमार याव सहस्सार ति णिरयभंगो । आणद याव उपरिमगेवज्जा ति णिरयभंगो । णामाणं वण्ण-गंध-रस-फासाणं ओथं । सरीरं णारग प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। छह संस्थान, छह संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका अलग-अलग उत्कृष्ट प्रदेशाग्र परस्परमें तुल्य है। दो आयु और दो गोत्रोंका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । ७४. तिर्यञ्चोंमें सात कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि यश कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। इसी प्रकार सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । पञ्चद्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सात काँका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्ममें अन्यतर वेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । इस प्रकार नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यश कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे अयशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तक, सब एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यों में ओघके समान भङ्ग है। ७५. देवोंमें सात कर्मीका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिमें बन्धको प्राप्त होने योग्य प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयकतकके देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। नामकर्मकी प्रकृतियोंमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । शरीरका भङ्ग १. ता० प्रतौ 'वण्ण० दोआणु०' इति पाटः। २. आ० प्रती ‘एवं सत्तमु पुढवीसु । तिरिक्खेसु सत्तण्णं कम्माणं णिरयभंगो। णामाणं ओघो। णवरि देवगदि' इति पाठः । ३. ता० प्रतौ 'उवरिम केवेज्जात्ति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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