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________________ अंतरपरूवणा ५६. सेसाणं उक्करसभंगो। णरि परिमाणे यम्हि असंखेज्जा रासी तम्हि आवलि० असंखेजदिभागो । यम्हि संखजरासी तम्हि संखेंजसमयं। यम्हि अणंतरासी तम्हि सव्वदा। वादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरपत्तेयपजत्तयाणं च उक्स्सभंगो । सेसा विगप्पा सव्वदा । एवं कालं समत्तं। अंतरपरूवणा ६०. अंतरं दुविहं-जह० उक्क० च । उक्क० पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओधे० सव्वपदीणं उक्कस्सपदेसबंधतरं केवचिरं०? जह० एग०, उक्क० सेढीए असंखें। अणु० पगदिअंतरं कादव्वं । एस भंगो याव अणाहारग त्ति । णवरि सव्वएइंदियाणं मणुसाउ० ओघ । सेसाणं उक्क० अणु० णत्थि अंतरं । एवं वणष्फदि-णियोदाणं विशेषार्थ-नरकायु और देवायुका जघन्य प्रदेशवन्ध आयुबन्धके मध्यमें भी हो सकता है, इसलिए इनका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय प्राप्त होनेसे वह एक समय कहा है। पर मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशबन्ध त्रिभागके प्रथम समयमें होता है, इसलिए इसका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष काल जैसा उत्कृष्टके समय घटित करके बतला आये हैं, उसी प्रकार अपने-अपने स्वामित्वको देखकर यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए । मत्यज्ञानी आदि चार मार्गणाओंमें देवगतिचतुष्क का भङ्ग नरकगतिके समान कहनेका कारण यह है कि इनमें इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले लगातार असंख्यात जीव सम्भव हैं, इसलिए इनमें इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण नरकगतिके समान बन जाता है। ५६. शेष मार्गणाओंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि जिनमें परिमाण असंख्यात है,उनमें जघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है और जिनका परिमाण संख्यात है,उनमें जघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा जिनका परिमाण अनन्त है,उनमें सर्वदा काल है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। शेष विकल्पोंमें सर्वदा काल है। विशेषार्थ-यहाँ स्वामित्व को देखकर मूलमें कहे अनुसार काल घटित कर लेना चाहिए। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। अन्तरप्ररूपणा ६० अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका कितना अन्तर है? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान करना चाहिए । यह भङ्ग अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सब एकेन्द्रियों में मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। शेप प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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