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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ५८. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओषे० दोआउ० जह० जह. एग०, उक्क० आवलि. असंखे । अजह० जह० एग०, उक० पलिदो० असंखें। मणुसाउ० जह० नह० एग०, उक्क. आवलि० असंखें । अजह. जह० अंतो०, उक० पलिदो० असंखें । णिरयगदि-णिरयाणु० जह• जह• एग०, उक्क० आवलि. असंख० । अजह० सव्वदा । देवगदि०४-आहार०२-तित्थ० जह० जह० एग०, उक० संखजस० । अजह० सव्वदा । सेसाणं सव्वपगदीणं जह• अजह० सव्वदा । एवं ओघभंगो कायजोगि०-ओरालि०-ओरालियमि०-कम्मइ०-णस०-कोधादि०४-मदिसुद०-असंज०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि-मिच्छा०-असण्णि-आहारअणाहारग त्ति । णवरि मदि-सुद०-अभवसि०-मिच्छा०-असण्णि. देवगदि०४ णिरयगदिभंगो। और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जो काल ओघसे घटित करके बतला आये हैं वह तिर्यश्चोंमें भी बन जाता है, इसलिए यहाँ उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। आगे अनन्त संख्यावाली अन्य जितनी मार्गणाएं हैं, जिनमें ओघ प्ररूपणा नहीं बनती, उनमें तिर्यञ्चोंके समान प्ररूपणा बन जानेसे उसे इनके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र एकेन्द्रियोंमें और उनके सब भेदोंमें सात कर्मों के दोनों पदवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए उनमें इनका काल सर्वदा कहा है । वनस्पति आदि आगे और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी एकेन्द्रियोंके समान काल बन जाता है, इसलिए एकेन्द्रियोंके समान जाननेकी सूचना की है। तथा असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओं और बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त आदि चारोंमें नारकियोंके समान प्ररूपणा बन जानेसे उनके समान जाननेको सूचना की है । यहाँ यद्यपि पृथिवीकायिक आदिमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जाननेकी सूचना की है, पर उसका अभिप्राय पूर्वोक्त ही है । शेष कथन सुगम है। ५८ जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे दो आयुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। देवगतिचतुष्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्करका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्र पयोगी, कामंणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें देवगतिचतुष्क का भङ्ग नरकगतिके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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