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________________ कालपरूवणा ५७. तिरिक्खेसु सत्तण्णं कम्माणं उक० जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखें । अणु० सव्वद्धा । चदुण्णमाउगाणं ओघं । एवं सव्वाणं अणंतरासीणं । एसिं असंखेंजरासी तेसिं णिरयभंगो। एसिं संखेंजरासी तेसिं आहारसरीरभंगो। णवरि एइंदिएसु सव्वविगप्पा सत्तण्णं क० उक्क० अणु० सव्वदा । दोआउ० ओघं । एवं वणप्फदि-णिगोद-सव्वसुहुमाणं बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपत्ते०अपजत्तयाणं च । पुढवि०-आउ०-तेउ०वाउ० तेसीए बादरा तिरिक्खओ । तेसिं वादरपजत्तगाणं पंचिंदियतिरिक्ख०अपज्जत्तभंगो। काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । तथा इनमें मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले अधिकसे अधिक संख्यात जीव ही हो सकते हैं, इसलिए इनमें मनुष्यायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । अव रहा अनुत्कृष्टका विचार सो तियश्चायुका बन्ध एक साथ और लगातार असंख्यात जीव कर सकते हैं और एक जीवकी अपेक्षा इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः यहाँ इसका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले नाना जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है, क्योंकि असंख्यात अन्तर्मुहूर्तों के कालका योग पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । तथा मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले संख्यात जीव ही हो सकते हैं, इसलिए इसका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । इन दो प्रकृतियोंके सिवा शेष प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है, यह स्पष्ट ही है। सातों पृथिवियों में इसी प्रकार काल बन जानेसे उनमें सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। ५७. तिर्यश्चोंमें सात कोका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। चार आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सब अनन्त राशियों में जानना चाहिए । जिन मार्गणाओंकी असंख्यात राशि है उनमें नारकियोंके समान भङ्ग है, तथा जिन मार्गणाओंकी संख्यात राशि है उनमें आहारकशरीरके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियोंके सब भेदोंमें सात कर्मोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार वनस्पति, निगोद और सब सूक्ष्म जीवोंमें तथा बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और वादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिए । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और उनके बादरों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है । तथा उनके बादर पर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तियञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशवन्धके जो जीव स्वामी बतलाये हैं वे कमसे कम एक समय तक उनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करें,यह भी सम्भव है और लगातार अनेक जीव क्रमसे यदि उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करें,तो असंख्यात समय तक ही कर सकते हैं। इसके बाद नियमसे अन्तर काल आ जाता है, इसलिए इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है,यह स्पष्ट ही है। चार आयुओंका उत्कृष्ट १. ता० आ० प्रत्योः 'बादरा आघ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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