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________________ ६४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे सव्वसुहुमाणं । पुढवि०-आउ०-तेउ ०-बाउ० तेसिं बादराणं पत्तेग० ओघं । तेसिं च बादरअपज०-पत्तेगअपज० एइंदियभंगो । ६१. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० तिण्णिआउ०-वेउ वियछक्क-आहारदुग-तित्थ० जह• अजह० उक्कस्सभंगो। सेसाणं जह० अजह० णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघो कायजोगि-ओरालि०-ओरालि मि०-कम्मइ०णस०-कोधादि०४-मदि-सुद०-असंज०-अचस्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि०मिच्छा०-असण्णि-आहार०-अणाहारग त्ति । सेसाणं अप्पप्पणो उक्कस्संतरं कादव्वं । एवं अंतरं समत्तं । अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक, निगोद और सब सूक्ष्म जीवों में जानना चाहिए । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इन चारोंके बादर तथा प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इनके बादर अपर्याप्तक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-योगस्थान जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध जिस योगसे होता है, वह एक समयके अन्तर से भी हो सकता है और सब योगस्थानोंके क्रमसे हो जाने पर भी हो सकता है, इसलिए यहाँ ओघसे सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवाका जघन्य अन्तर एकसमय और उत्कृष्ट अन्तर जगणिके असख्यातव भागप्रमाण कहा है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर जिस प्रकृतिबन्ध का जो अन्तर है उतना है यह स्पष्ट ही है । इस प्रकार यह अन्तर कथन अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । किन्तु एकेन्द्रियादि कुछ मागणाओंमें फरक है जो अलगसे कहा है। ६१ जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे तीन आयु, वैक्रियिकषटक, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर उत्कृष्टके समान है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए । शेष मार्गणाओंमें अपनेअपने उत्कृष्टके समान अन्तर करना चाहिए। विशेषार्थ-तीन आयु आदिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध यथायोग्य असंख्यात और संख्यात जीव ही करते हैं, इसलिए इनका उत्कृष्टके समान भङ्ग बन जाता है । पर शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध अनन्त जीव करते हैं, इसलिए इनके दोनों पदोंका अन्तर काल नहीं बननेसे उसका निषेध किया है। यहाँ सामान्य तिर्यश्च आदि अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह ओघप्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है । इनके सिवा शेष जितनी मार्गणाएं हैं उनमें अपने-अपने उत्कृष्टके समान प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उसे उत्कृष्टके समान जाननेकी सूचना की है। इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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