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________________ महाबन्ध का सारांश महाबन्ध का विषय 1 'महाबन्ध' का मूल विषय कर्म-बन्ध है बन्ध का अर्थ है-बँधना प्रश्न यह है कि जीव बँधता है, कर्म बँधता है या दोनों परस्पर बँधते हैं अथवा बाँधते हैं। आचार्य भूतबली भगवन्तों का अभिप्राय प्रकट करते हुए कहते हैं- 'को बंधो को अबंधो।' (पु.१, पृ.३६) अर्थात् मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली तक सभी बन्धक हैं। 'बन्ध' का अर्थ बँधना तथा बँधनेवाला है। यदि जीव कर्म से बँधता है तो संसारी है और कर्मों से छूट जाता है तो मुक्त है। यह सुनिश्चित है कि जीव अपने आपको भूल जाने के कारण स्वयं अज्ञान से बँधा हुआ है, तभी कर्म उसके साथ संयोग में हैं। लेकिन महज संयोग मात्र नहीं है, हक़ीक़त भी है। जीव के स्वभाव में किसी कर्म का प्रवेश नहीं है। कहा भी है- "दव्वस्स दव्वेण दव्व-भावाणं वा जो संजोगो समवाओ वा सो बंधो णाम" (षट्खण्डागम, धवला पु. १४, पृ. १) अर्थात् द्रव्य का द्रव्य रूप से और द्रव्य का भाव रूप से जो संयोग या समवाय है उसका नाम बन्ध है । व्यवहार से भी जीव भावों के सिवाय कुछ नहीं कर सकता है। अतः राग-द्वेष, मोह के अतिरिक्त कर्म की प्रकृति क्या है? उसका सम्बन्ध जीव के प्रदेशों के साथ है। यह भी स्पष्ट है कि एक साथ कुछ समय तक एक ही प्रदेश में जीव और कर्म के रहे बिना सम्बन्ध स्थापित नहीं होता। इसलिए जीव और कर्म का एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध कहा गया है। जैसे एक ही बर्तन में दूध और पानी मिले हुए होने पर भी अलग-अलग हैं, इसी प्रकार जीव और कर्म के एक साथ रहने पर भी वे दोनों अलग-अलग हैं। यही नहीं, दोनों के काम भी अलग-अलग हैं, लेकिन कर्म का फल जीव को मिलने के कारण; क्योंकि जीव उस रूप वेदन करता है, इसलिए कर्म की प्रकृति को जीव रूप कहा जाता है अर्थात् उस समय जीव का वही भाव होता है। ७ चौदह गुणस्थानों में से प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थकर प्रकृति और आहारकडिक का बन्ध न होने से ११६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। द्वितीय गुणस्थान सासादन में मिथ्यात्वादि १६ प्रकृतियों का बन्ध न होने से १०१ कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिश्र गुणस्थान में ६६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। चतुर्थ गुणस्थान में अविरत सम्यग्दृष्टि के देवायु और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ हो जाने से ६१ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है। पंचम देशविरत गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण ४ प्रकृतियों का बन्ध न होने से ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। प्रमत्तगुण में ६३ और अप्रमत्तगुणस्थान में ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अपूर्वकरण में ५८ प्रकृतियों का अनिवृत्तिकरण में २२ प्रकृतियों का तथा उपशान्तकषाय में १७ कर्म- प्रकृतियों का बन्ध होता है। सूक्ष्म साम्पराय क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थानों में केवल १ कर्म प्रकृति का बन्ध होता है। किन्तु चौदहवें गुणस्थान अयोगकेवली में किसी भी प्रकृति का बन्ध नहीं होता । जैनधर्म भावप्रधान है। जीवों के मिथ्यात्व अवस्था में मिथ्या भाव होते हैं और सम्यक्त्व अवस्था में सम्यक्त्व भाव होते हैं। वास्तव में जीव में प्रत्येक भाव रूप परिणमन उसकी अपनी योग्यता से होता है, किन्तु कथन निमित्तसापेक्ष किया जाता है। सिद्धान्तशास्त्र में अन्तरंग, बहिरंग कारण निमित्त की अपेक्षा कहे गए हैं। परन्तु जीव का स्वभाव परमनिरपेक्ष है अन्तर इतना ही है कि परमागम में आत्मा के सहज । शुद्ध स्वभाव का वर्णन सर्वप्रथम किया जाता है, किन्तु सिद्धान्त ( आगम) ग्रन्थों में उसे सबसे अन्त में समझाया जाता है । परिणाम दो प्रकार के हैं-सराग और वीतराग । जैनधर्म वीतराग भाव में है । अतः जैनधर्म वीतराग है। पंचगुरु वीतराग हैं जिनवाणी वीतरागता की प्रतिपादक है और अर्हन्त प्रतिमा वीतरागता की प्रतीक है। जैनसाधु आदर्श हैं। परमार्थ से वीतरागता ही साधुता है। 1 Jain Education International अन्य प्रकार से दो प्रकार के परिणाम हैं- उत्कृष्ट और जघन्य । 'अनन्त' नाम संसार का है, क्योंकि उसका कभी अन्त नहीं है। जो संसार का कारण है - वह 'अनन्त' है । यहाँ पर 'मिथ्यात्व' परिणाम को 'अनन्त' कहा गया है। राग, द्वेष संसार का कारण है, बन्ध का कारण है, संसार में टिकानेवाला और उसका फल देने की शक्तिवाला है; किन्तु अनन्त संसार का कारण मिथ्यात्व ही है। जो उस मिथ्यात्व के साथ (अनु) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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