________________
महाबन्ध
को ग्रहण करने से राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं। यही संसार-चक्र है। _ 'महाबन्ध' में सामान्यतः बन्ध के चार भेदों (प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश-बन्ध) का बहुत विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। मूल में प्रश्न यह है कि जीव अमर्त है और कर्म मर्तिक है। से जीव में स्पर्श गुण नहीं है। जब जीव कर्म को छू नहीं सकता है तो फिर बँधता कैसे है? इसका मुख्य कारण जीव की अपनी कमजोरी है। जीव ज्ञानमय है, लेकिन ज्ञानावरण कर्म के उदय में अपने को भूला हुआ पर को जानने में लगा रहता है। परिणमन करने की शक्ति जीव में है। अतः राग-द्वेष, मोह रूप परिणमन से कर्म का बन्ध करता रहता है और अज्ञानी (आत्मज्ञान नहीं होने से) बना रहता है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग के निमित्त से कर्म का बन्ध होता है। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन का बन्ध करने वाला मिथ्यादृष्टि होता है। (महाबन्ध, भा.१, पृ.४७) मिथ्यात्व के उदय में ही प्रथम गुणस्थान (योग और मोह से उत्पन्न स्थिति) होता है। मिथ्यात्व के भाव से मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व का बन्ध करता है। मिथ्यात्व का बन्ध करने वाला ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण शरीर, ४ वर्ण, अगुरुलघु, अपघात, निर्माण और ५ अन्तराय का नियम से बन्धक है। (वही, पृ.१३५) मिथ्यात्व में भी रंजना शक्ति है, इसलिए मिथ्यात्व का बन्ध करने वाला तीनों लोकों का स्पर्शन करता है। मिथ्यात्व के बन्धकों का स्पर्शन-क्षेत्र ८/१४, १३/१४ या सर्वलोक है। (वही, पृ. २४८) यही नहीं, 'कर्म की स्थिति' से मतलब केवल 'मोह' या 'मिथ्यात्व' की सत्तर कोड़ा-कोड़ी (एक करोड़ में एक करोड़ का गुणा करने पर जो संख्या हो) सागर की स्थिति से है जिसमें सब कर्मों की स्थिति का संग्रह है। (महाबन्ध, भा. १, पृ.६३)
कर्म की स्थिति दो तरह की होती है-कर्मस्थिति और निषेकस्थिति। द्रव्यकर्म आठ प्रकार के हैं-ज्ञानावरणीय (जो सम्पूर्ण ज्ञान को प्रकट होने से रोके), दर्शनावरणीय (जो पूर्ण दर्शन को विकसित न होने दे), वेदनीय (जिससे सुख-दुःख का वेदन हो), मोहनीय (जिससे मोह रूप अनुभव हो), आयु (जिससे जीव को अमुक समय तक शरीर में रहना पड़े), नाम (जिससे गति, जाति, शरीर आदि मिलता है), गोत्र (ऊँच-नीच कुल जिससे मिले) और अन्तराय (बिध्न-बाधा उत्पन्न करनेवाला)। ये कर्म की मूल प्रकृति के आठ भेद कहे गये हैं। इन आठ मूल प्रकृतियों के १४८ भेद होते हैं। इनमें से कर्मबन्ध योग्य १२० प्रकृतियाँ हैं। यद्यपि उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं, लेकिन दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व ये दो
अबन्ध-प्रकृतियाँ हैं और पाँच बन्धनों तथा पाँच संघातों का पाँच शरीरों में अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार स्पर्शदिक के बीस भेदों के स्थान पर चार का ग्रहण किया गया है, इसलिए २८ प्रकृतियाँ कम हो कर १२० प्रकृतियाँ कही गयी हैं। इन कर्म-प्रकृतियों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की १६, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भयद्विक, तैजसद्विक, अगुरुलघुद्विक, निर्माण और वर्णचतुष्क ये ४७ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं।
द्रव्यकर्म की रचना कर्म-परमाणुओं से होती है। जीव के राग-द्वेष, मोह भाव के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो स्पन्दन क्रिया होती है, उससे समान गुण वाले वर्गों का समूह वर्गणा रूप परिणमन करता है जो कर्म का आकार ग्रहण करता है। यद्यपि वर्गणाएँ तेईस प्रकार की कही गयी हैं, किन्तु उनमें से आहार वर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा ये ही पाँच ग्रहण योग्य हैं। कार्मण-वर्गणा से कर्म की रचना होती है। कर्म के परमाणु कहीं बाहर से नहीं आते, वे शरीर में ही विद्यमान (मौजूद) हैं। प्रत्येक कर्म-प्रकृति की वर्गणा भिन्न-भिन्न है। कर्म-परमाणु स्कन्धों के रूप में निक्षिप्त होते हैं जिनको निषेक कहा जाता है। कर्म निषेक रूप में बँधते हैं और निषेक रूप में झड़ते हैं। मिथ्यादर्शन, असंयमादि परिणामों से कार्मण वर्गणा के परमाणु कर्म रूप से परिणत होकर जीवप्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं जिसे 'प्रकृतिबन्ध' कहते हैं। इस प्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा २४ अनुयोगद्वारों में की गयी है जो 'महाबन्ध' की पहली पुस्तक के रूप में है। एक समय में एक ही कर्म-प्रकृति का बन्ध होता है। उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्ध प्रकृतिबन्ध में सम्भव नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org