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महाबन्ध का सारांश
महाबन्ध क्या है?
'महाबन्ध' का सीधा-सादा अर्थ है-महान बन्धन दुनिया में एक-से-एक बड़े बन्धन हैं जिनको शारीरिक, मानसिक और भौतिक शक्तियों के बल से तोड़ा जा सकता है, लेकिन मोह, राग एक ऐसा बन्धन है जिसे साधु, सन्त, योगी ही अध्यात्मयोग से तोड़ सकता है। मोह, राग-द्वेष का नाम 'कर्म' है। इनमें अपनेपन की बुद्धि से कर्मबन्ध होता है । कर्म-बन्ध से जन्म-मरण, सुख-दुःख की प्राप्ति होती है जो संसार का मूल कारण है। 'कर्म' किसी भाव का नाम मात्र नहीं है, किन्तु वह एक हक़ीक़त है जो द्रव्य और भाव रूप से अपना अस्तित्व रखती है। इसलिए मूल में कर्म के दो भेद हैं-भावकर्म और द्रव्यकर्म जिसकी कोई शुरुआत नहीं है, ऐसे काल के अनादिनिधन प्रवाह में अनादि काल से भावकर्म के निमित्त से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म के निमित्त से भावकर्म प्रत्येक समय में उत्पन्न होता रहता है।
जो सदा काल ज्ञान, दर्शन में चेतता है उसे 'चैतन्य' और जो जीवित रहता है उसे 'जीव' कहते हैं । जीव चेतन है, कर्म जड़ है। लेकिन अनादि काल से दोनों का निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है । आगम ग्रन्थों में 'कर्म' शब्द का प्रयोग इन तीन अर्थों में मिलता है-जीव की स्पन्दन क्रिया, जिन भावों ( राग-द्वेष, मोह) से स्पन्दन क्रिया होती है और जो कर्म रूप ( कार्मण) पुद्गलों में संस्कार के कारण उत्पन्न होते हैं। वास्तव में जन्म-जन्मान्तरों में बने रहनेवाले वासनात्मक संस्कार 'कर्म' हैं । 'कर्म' का मुख्य काम जीव को संसार में रोककर रखना है। राग-द्वेष और मोह के निमित्त से आत्मा के साथ जो कर्म सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं उनके साथ अमुक समय तक बने रहने को स्थिति कहते हैं।
'महाबन्ध' सात पुस्तकों में है। पहली पुस्तक प्रकृतिबन्धाधिकार है। इसमें कर्म के स्वभाव का स्वरूप बताया गया है । 'प्रकृति' का अर्थ स्वभाव है। कर्म के असली स्वभाव का नाम मूल प्रकृति है। अलग-अलग भाग के रूप में जिसे कहा जाए वह उत्तर प्रकृति है। स्वभाव बतलाने का प्रयोजन द्रव्य की स्वतन्त्रता बतलाना
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है जीव कभी कर्म रूप नहीं होता और कर्म कभी जीव रूप नहीं होता। किन्तु इन दोनों के सम्बन्ध का नाम बन्ध है। कोई भी वस्तु अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ती। नीम अपनी कड़वाहट छोड़कर मीठा नहीं होता और शक्कर कभी मिठास छोड़कर अन्य रस- रूप नहीं होती ।
आगम छह खण्डों में निबद्ध है। आगम ग्रन्थों को ही सिद्धान्तशास्त्र कहते हैं। आचार्य नेमिचन्द्र का कथन है कि जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड और महाबन्ध के भेद से षट्खण्ड रूप सिद्धान्तशास्त्र है (कर्मकाण्ड, गा. ३६७ )
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कर्म की सामान्य प्रकृतियाँ १४८ हैं। इनके विशेष भेद अनन्त हो जाते हैं ओघ से ५ ज्ञानावरण तथा ५ अन्तराय की प्रकृतियों का सर्वबन्ध होता है। आयुकर्म को छोड़कर सातों कर्मों की प्रकृतियाँ निरन्तर बँधती रहती हैं। कर्म की प्रकृतियों के स्वरूप को कहना, वर्णन करना 'प्रकृति समुत्कीर्तन' कहलाता है जो 'महाबन्ध' के प्रथम भाग का मूल विषय है। यह प्रकृतिबन्ध अधिकार' 'षट्खण्डागम' के वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत बन्धनीय अर्थाधिकार में २३ पुद्गल वर्गणाओं की प्ररूपणा में विवेचित है २४ अनुयोगद्वारों में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है। 'महाबन्ध' में भी यही शैली अपनाई गयी है। इसमें ज्ञानावरणीय की उत्तर तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियों का विवेचन किया गया है। यह कहा गया है कि मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योगों के निमित्त से कर्म उत्पन्न होते हैं और कर्मों के निमित्त से जाति, बुढ़ापा, मरण और वेदना उत्पन्न होती है। कर्म शुभ और अशुभ दोनों तरह के होते हैं। जीवों को एक और अनेक जन्मों में पुण्य तथा पाप कर्म का फल मिलता है। कर्म के उदय में जीव के राग-द्वेष और मोह रूप भाव होती है। उन भावों के कारण कर्म बँधते हैं। कर्मों से चार (मनुष्य, तियंच, नरक, देव) गतियों में जन्म लेना पड़ता है। उससे शरीर मिलता है । शरीर के मिलने से इन्द्रियाँ होती हैं। उनसे यह जीव विषयों को ग्रहण करता है । विषयों
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