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________________ ५८ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ५३. उवसम० देवगदिपंचगं आहारदुगं जह० अजह० खेत्तभंगो। सेसाणं जह बँत्तभंगो । अजह० अट्ठ० । सासणे सव्यपगदीणं जह० खेत्तभंगो । अजह० अप्पप्पणो पगदिफोसणं कादव्वं । दोआउ० देवमंगो। सम्मामि देवगदि०४ जह• अजह. खेत्तभंगो । सेसाणं जह० अजह० अट्ठचों ।। ५४. सण्णीसु सव्यपगदीणं जह० खेत्तभंगो। अजह० अप्पप्पणो पगदिफोसणं कादव्यं । असण्णीसु सव्वपगदीणं जह० खेत्तभंगो । अजह पगदिफोसणं णेदव्वं । एवं फोसणं समत्तं। आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका तथा शुक्ललेश्यामें बसनालीका कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेपार्थ-यहाँ सर्वत्र अपने-अपने स्पर्शनको जानकर वह घटित कर लेना चाहिए । जहाँ जो विशेषता कही है, उसे स्वामित्वं देखकर जान लेनी चाहिए। ५३. उपशमसम्यक्त्वमें देवगतिपञ्चक और आहारकद्विकका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने वसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सासादनसम्यक्त्वमें सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अपने-अपने प्रकृतिबन्धके स्पर्शनके समान करना चाहिए। दो आयुओंका भङ्ग देवोंके समान है। सम्यग्मिथ्यावृष्टि जीवोंमें देवगति चतुष्कका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। _ विशेषार्थ-उपशमसम्यक्त्वमें देवगति चतुष्कका प्रदेशबन्ध भी मनुष्य ही करते हैं, इसलिए देवगतिपञ्चक और आहारकद्विकका जवन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्रके समान कहा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें देवगतिचतुष्कके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहनेका यही कारण है। शेप स्पर्शन स्पष्ट ही है। ५४ संज्ञी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अपने-अपने प्रकृतिबन्धके स्पर्शनके समान करना चाहिए । असंज्ञी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन प्रकृतिबन्धके स्पर्शनके समान करना चाहिए। विशेषार्थ-संज्ञी और असंज्ञी इन दोनों मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जो स्वामित्व बतलाया है उसे देखते हुए इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह, क्षेत्रके समान कहा है। तथा सब प्रकृतियोंका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन उनके प्रकृतिबन्धके स्पर्शनके समान होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि प्रकृतिबन्ध जघन्य या अजघन्य प्रदेशबन्धको छोड़कर नहीं हो सकता । उसमें भी जघन्य प्रदेशबन्ध नियत सामग्रीके सद्भावमें ही होता है, अन्यत्र तो अजघन्य प्रदेशबन्ध अधिक सम्भव होनेसे दोनोंका स्पर्शन एक समान जाननेकी सूचना की है। इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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