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________________ फोसणपरूवणा ५७ जह' खेत्तभंगो । अजह० अप्पप्पणो पगदिफोसणं कादव्वं । एवं ओधिदं०-सम्मा०खइग०-वेदग० । ५१. संजदासंजदेसु असादा०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह० अजह. छच्चों । देवाउ०-तित्थ० ज० अजह० खेत्तभंगो । सेसाणं जह० खेत्तभंगो । अजह० छच्चों। ५२. चक्खुदं० तसपजत्तभंगो। किण्ण०-णील०-काउ० तिरिक्खोघं । णवरि वेउब्वियछक्कं तित्थ० जह० खेत्तभंगो । अजह० पगदिफोसणं कादव्वं । तेउ-पम्मसुक्काए सव्वपगदीणं आउगवजाणं च खेत्तभंगो। अजह० अप्पप्पणो पगदिफोसणं कादव्वं । दोआउ० जह० अजह० अट्ठ० सुक्काए छच्चों। स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवांका स्पर्शन अपने-अपने प्रकृतिबन्धके स्पर्शनके समान करना चाहिए। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-देवोंमें विहारवत्स्वस्थानके समय भी मनुष्यायुका दोनों प्रकारका बन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ मनुष्यायुका दोनों पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ५१. संयतासंयत जीवोंमें असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सनालीका कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-असातावेदनीय आदिका देवोंमें मारणान्तिक समुद्भात करते समय भी दोनों प्रकारका बन्ध सम्भव है, इसलिए इनका दोनों पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । इसी प्रकार देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रकृतियोंका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंकी अपेक्षा स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। मात्र इनका जघन्य प्रदेशबन्ध मारणान्तिक समुद्धातके समय सम्भव नहीं है, इसलिए इनका जघन्य पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका दोनों पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है,यह स्पष्ट ही है। ५२. चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें सपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कपोतलेश्यामें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकषट्क और तीर्थङ्करप्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अपने-अपने प्रकृतिबन्धके स्पर्शनके समान करना चाहिए। पीतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्यामें आयुके सिवा शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अपने-अपने प्रकृतिबन्धके स्पर्शनके समान करना चाहिए। दो आयुओंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने पीत और पद्मलेश्यामें सनालीका कुछ कम १ आ० प्रती 'अहचो० । जहः' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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