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________________ फोसणपरूवणा जह० अजह० अट्ठचौ० । ४८. ओरालियका० - ओरालियमि० कम्मइ० - अणाहारग ति ओघं । वेउव्वियका० सव्वपगदीणं० जह० खँत्तभंगो । अजह० अप्पप्पणी पगदिफोसणं दव्वं । दोआउ० जह० अजह० अट्ठचों० । वेउव्वि०मि० - आहार० - श्राहारमि० अवगद०-मणपञ्ज०-संजद-सामाई० - छेदो०- परिहार० सुहुमसं० खेत्तभंगो । इत्थ० - पुरिस ० जह० खेत्तभंगो । अजह० अप्पष्पणो पगदिफोसणं कादव्वं । 0 । ५५ ४६. विभंगे पंचणा० - णवदंस० - दोवेद ० - मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक०तिरिक्ख० - एइंदि० - तिणिसरीर हुंड० - वण्ण०४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४ - थावर-पज्जत्तपत्ते०-थिरादिदोयुग०-दूभग-अणादें ०० - अजस० - णिमि० णीचा०- पंचंत० जह० अड्ड० । अजह० अट्ठ० सव्वलो० । इत्थि० - पुरिस० पंचिंदि० - पंचसंठा० ओरालि० अंगो० तया अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ - इन दोनों योगों में पाँच ज्ञानावरणादि जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व द्वीन्द्रिय जीवों के होता है उन सब प्रकृतियोंका जघन्य पदकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। शेष स्पर्शन मनोयोगी जीवोंके समान ही है। Jain Education International ४८. औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवांमें ओघके समान भङ्ग है । वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अपने अपने प्रकृतिबन्धके स्पर्शनके समान जाना चाहिए। दो आयुओंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वैकियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धि संयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें क्षेत्रके समान भङ्ग है । स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें जघन्यका भङ्ग क्षेत्रके समान है । तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अपनेअपने प्रकृतिबन्धके स्पर्शनके समान करना चाहिए । विशेषार्थ - इन सब मार्गणाओं में जहाँ जिसके समान स्पर्शन कहा है उसे देख कर वह घटित कर लेना चाहिए । ४६. विभङ्गज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, तीन शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि दो युगल, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर १ आ० प्रतौ 'संजद० संजदासंजद सामाइ०' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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