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________________ ४६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अजह. केवडियं खेतं फोसिदं ? खेत्तभंगो। मणुसाउ० जह० लोगस्स असंखें सव्वलो० । अजह० अट्टचॉ. सव्वलो। दोगदि-दोआणु० जह० खेत्तभंगो। अजह० छचो० । वेउवि०-वेउव्वि०अंगो० जह० खेतभंगो । अजह० बारह० । तित्थ० जह० खेत्तभंगो। अजह. अट्ठचों । सेसाणं सव्वपगदीणं जह० अजह० सव्वलो० । एवं ओषभंगो कायजोगि-णस०-कोधादि०४-मदि-सुद०असंज०-अचक्खु०-भवसि०-मिच्छा०-आहारग त्ति णेदव्वं । णवरि णस० तित्थ० खेतभंगो । मदि-मुद० वेउब्धियछ. जह० खेत्तभंगो । अजह० पगदिभंगो । एवं अ भवसि०-मिच्छा० । आयु और आहारक द्विकका जघन्य और अजघन्य प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनका भङ्ग क्षेत्रके समान है। मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो गति और दो आनुपूर्वीका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम कह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सनालीका कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेप सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवाने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्याष्टि और आहारक जीवोंमें ले जाना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदी जीवोंमें तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। तथा मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में वैक्रियिकषट्कका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका भङ्ग प्रकृतिवन्धके समान है। इसी प्रकार अभव्य और मिश्यावृष्टि जीवों में जानना चाहिए। विशेपार्थ-नरकाय और देवायुका बन्ध मारणान्तिक समुद्रातके समय नहीं होता । तथा आहारकद्विकका बन्ध अप्रमत्तसंयत आदि जीव करते हैं, इसलिए इनका दोनों पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण वन जानेसे यह उक्त प्रमाण कहा है । तथा इनका अजघन्य प्रदेशवन्ध देवोंके बिहारवस्वस्थानके समय और एकेन्द्रियोंके भी सम्भव है, इसलिए इसका इस पद की अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण सर्शन कहा है। नरकगतिद्विक और दवगांतद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध क्रमसे असंझी जीव और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ मनुष्य योग्य सामग्रीके सद्भावमें करते हैं । यतः इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, अतः क्षेत्रके समान कहा है । तथा इनका अजघन्य प्रदेशबन्ध क्रमसे नरकों और देवों में मार णान्तिक समुद्भातके समय भी सम्भव है, अतः इनका इस पदकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम छह बटे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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