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________________ फोसणपरूवणा ३६. णेरइएसु दोआउ०-मणुस०-मणुसाणु०-तित्थ०-उच्चा० जह० अजह० खेत्तभंगो । सेसाणं जह० खेत्तभंगो । अजह० छच्चों० । एवं सव्वणेरइगाणं अप्पप्पणो फोसणं णेदव्यं । ४०. तिरिक्खेसु ओघं । पंचिंदियतिरिक्ख०३ पंचणा०-णवदंसणा०-दोवेद०मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०-तिरिक्ख०-एइंदि०-तिण्णिसरीर-हुंडसं०-वण्ण०४-तिरि वाणु०-अगु०४-थावर-सुहम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्ते०-साधार०-थिराथिर-सुभासुभ-भगअणादें-अजस०-णिमि०णीचा०-पंचंत० जह० खेत्तभंगो। अजह० लोग० असंखें चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । वैक्रियिकद्विकके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी देवगतिद्विकके समान है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । तथा इनका अजघन्य प्रदेशवन्ध नारकियों और देवोंमें मारणान्तिक समुद्रातके समय भी होता है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम बारह वटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ देव और नारकी जीव करते हैं,पर ऐसे जीव संख्यात ही होते हैं, अतः इसका इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्रके समान कहा है । तथा इसका अजघन्य प्रदेशबन्ध देवोंके विहारवत्स्वस्थानके समय भी सम्भव है, इसलिए इसका इस पदकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । इस ओघप्ररूपणाके समान काययोगी आदि अन्य मार्गणाओंमें भी स्पर्शन बन जाता है, इसलिए इनमें ओघके समान प्ररूपणा जाननेकी सूचना की है। मात्र देव नपुंसक नहीं होते, इसलिए नपुंसकवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भग क्षेत्रके समान प्राप्त होनेसे उसकी सूचना अलगसे की है । तथा मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें वैक्रियिकपटकका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवालोंका स्पर्शन भी ओघके समान नहीं बनता, इसलिए उसे प्रकृतिबन्धके समान जाननेकी सूचना की है । तथा अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवों में भी मत्यज्ञानीके समान ही स्पर्शन प्राप्त होता है, इसलिए इनमें भी मत्यज्ञानियोंके समान स्पर्शन जाननेकी सूचना की है। ___३६. नारकियोंमें दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब नारकियों में अपना-अपना स्पर्शन ले जाना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ दो आयु आदिके दोनों पदोंकी अपेक्षा और शेष प्रकृतियों के जघन्य पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहने का कारण स्पष्ट है । तथा शेष प्रकृतियोंका अजघन्य पद मारणान्तिक समुद्रातके समय भी सम्भव है, अतः इनका इस पदको अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। इसी प्रकार प्रथमादि सब नरकोंमें अपनाअपना स्पर्शन जानकर वह घटित कर लेना चाहिए । ४०. तिर्यश्चोंमें ओघके समान भङ्ग है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकपाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रितजाति, तीन शरीर, हुंडसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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