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महाबँधे पदे सबंध हियारे
३६. सणि० पंचिंदियभंगो । असण्णीसु पंचणा० णवदंसणा ० दोवेद०-मिच्छ०सोलसक० सत्तणोक० - तिरिक्खगदि एवं दि ० संजुत्ताणं याव णीचा० - पंचंत० उक्क० लोगस्स असंखे० सव्वलो० | [ अणु० सव्वलो० । ] सेसाणं उक्क० अणु० खेत्तभंगो । णवरि उज्जो०-जस० उक्क० सत्तचौ० । अणुः सव्वलो० ।
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३७. आहार० ओघं । अणाहारगेसु पंचणा० थीणगिद्धि ०३ - दोवेद०-मिच्छ०अताणु० ०४ - णवुंस ० पर ० - उस्सा ० - पज्जत्त ० - थिर-सुभ-णीचा०-पंचंत० उ० बारह० । और पञ्चेन्द्रियजाति आदिका अनुत्कृष्ट पद सम्भव है, इसलिए इनका उक्त पदोंकी अपेक्षा नालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । शेष भङ्ग क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है । यहाँ प्रयम दण्डककी ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ ये हैं- पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगतिपञ्चक, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय । तथा इनमें दो वेदनीय और चार नोकषाय भी सम्मिलित कर लेनी चाहिए, क्योंकि इन सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध देवोंके भी सम्भव है । पञ्चेन्द्रियजाति आदि प्रकृतियाँ ये हैं - पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस आदि चार, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण | ३६. संज्ञी जीवों में पचेन्द्रियोंके समान भङ्ग है । असंज्ञी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यगति और एकेन्द्रियजाति संयुक्त प्रकृतियोंसे लेकर नीचगोत्र और और पाँच अन्तरायतककी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इतनी विशेषता है कि उद्योत और यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीका कुल कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ - स्पर्शन प्ररूपणामें जो पञ्चेन्द्रियों में स्पर्शन कह आये हैं वह संज्ञियोंमें अविकल बन जाता है, इसलिए संज्ञियों में पञ्चेन्द्रिय जीव ही पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं और उनका स्वस्थान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा इनका एकेन्द्रियादि सब जीव बन्ध करते हैं, इसलिए इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । इनके सिवा शेष जितनी प्रकृतियाँ हैं, इनका दोनों पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है, ऐसा कहनेका यह तात्पर्य है कि जिस प्रकृतिका दोनों पदोंकी अपेक्षा जो क्षेत्र बतलाया है वह यहाँ स्पर्शन जानना चाहिए। मात्र उद्योत व यशः कीर्तिके स्पर्शनमें क्षेत्र से विशेषता है, इसलिए इसका उल्लेख अलगसे किया है ।
३७. आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अनाहारक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसक वेद, परघात, उच्छ्रास, पर्याप्त, स्थिर, शुभ, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीका
१. ता० प्रतौ 'सण्णि [यासय भंग । अ] सण्णीसु' इति पाठः ।
२. आ० प्रतौ 'पंचत० चारह०' इति पाठः ।
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