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________________ फोसणपरूवणा पंचचों । अणु० अट्ठ-बारह० । णवरि पंचिंदि०-[समचदु०-] पसत्थ०-तस-सुभगसुस्सर-आदें. [उ०] पंचचों । अणु० अट्ठ-ऍक्कारह । ३५. सम्मामि० पंचणाणावरणादिधुरियाणं पढमदंडओ दोवेद०-चउणोकवाय. उक्क०' अणु० अट्ठचों । देवगदि०४ खेत्तभंगो । पंचिंदियादिअट्ठावीसं उक० खेत्तभंगो । अणु० अट्ठचौँ । वसनालोके कुछ कम पाँच वटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, स, मुंभग, सुस्वर और आदेयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालोके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवाने बसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-सासादनसम्यक्त्वका स्वस्थानविहारकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है । मारणान्तिक समुद्रातकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम बारह पटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है । यहाँ प्रथम दण्डककी अपेक्षा दोनों पदोंका यह स्पर्शन बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । मात्र दो वेद, चार संस्थान, पांच संहनन और अप्रशस्त विहायोगतिका बन्ध एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्रात करते समय नहीं होता, इसलिए इनका दोनों पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । देवोंके विहार वत्स्वस्थानके समय भी दो आयु आदिके दोनों पद सम्भव हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके दोनों पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीका कछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । देवायुका भङ्ग क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है । देवगति चतुष्कका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तिर्यञ्च और मनुष्य करते हैं जो कि दवा मारणान्तिक समुद्भातक समय भी सम्भव है, अतः इन प्रकृतियोंका दोनों पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ पाँच वटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। पञ्चेन्द्रियजाति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध देवोंके स्वस्थानमें तथा एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धातके समय भी सम्भव है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा सनालीका कुछ कम आठ व कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। मात्र पश्चेन्द्रियजाति आदि निर्दिष्ट कुछ प्रकृतियोंका बन्ध एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्भातके समय नहीं होता, इसलिए इनका अनुत्कृष्ट पदकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। ३५ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में पाँच ज्ञानावरण आदि प्रथम दण्डककी ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका तथा दो वेदनीय और चार नोकपायका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिचतुष्कका भङ्ग क्षेत्रके समान है। पञ्चेन्द्रियजाति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा इनका अनकट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवं सनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-यहाँ देवोंमें विहारवत्स्वस्थानके समय भी पाँच ज्ञानावरणादिके दोनों पद १ ता० आ० प्रत्याः 'पढमदंडओ एगणतीसाए उक०' इति पाठः। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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