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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ३४. सासणे० पंचणा०-णवदंसणा०-दोवेद०-सोलसक०'-अट्ठणोक०तिरिक्ख०-चदुसंठा०-पंचसंघ०-तिरिक्खाणु०-उज्जो०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणार्दै०णीचा०-पंचंत० उक्क० अणु० अट्ठ-बारह । णवरि दोवेद० संठाणं संघडणं अप्पसत्थ० उक्क० अणु० अट्ठ०- एकारह० । दोआउ० मणुसगदिदुर्ग उच्चा० उक्क० अणु० अट्ठचों। देवाउ० खेत्तभंगो। देवगदि०४ दोपदा पंचचो०। पंचिंदियादिअट्ठावीसं० उ० है। शेष प्रकृतियोंका अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए। तथा भव्य जीवोंमें ओवके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-यहाँ जिन प्रकृतियोंका देवोंके विहारवत्स्वस्थानके समय भी उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, उनका उस पदकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। जिनका देवोंके विहारवत्स्वस्थानके समय और देवोंके ऊपर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है,उनका उस पदकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा जिनका मनुष्य और तिर्यश्च या केवल मनुष्य देवोंमें मारणान्तिक समुद्भातके समय भी उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं उनका उस पदकी अपेक्षा कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । यहाँ चार संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीव करते हैं, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। देवायुका मारणान्तिक समुद्धातके समय बन्ध नहीं होता और आहारकद्विकका अप्रमत्तादि जीव बन्ध करते हैं, इसलिए इनका दोनों पदोंको अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मनुष्य करते हैं, इसलिए इसका भी उक्त पदकी अपेक्षा क्षेत्रके समान स्पर्शन कहा है । पीतलेश्यामें यह जो स्पर्शन कहा है वह पद्मलेश्यामें भी बन जाता है । मात्र यहाँ कुछ कम डेढ़ राजूके स्थानमें कुछ कम पाँच राजू स्पर्शन कहना चाहिए । तथा त्रसनालीका कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन नहीं कहना चाहिए । शुक्ललेश्यामें भी इसी प्रकार अपना स्पर्शन जान कर घटित कर लेना चाहिए। मात्र इसमें पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी ओघके समान होनेसे इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवांका स्पर्शन सनालीका कुछ कम छह चटे चौदह भागप्रमाण बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। भव्योंमें ओघके समान भङ्ग है,यह स्पष्ट ही है। ३४ सासादनसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, सोलह कषाय, तिर्यञ्चगति, चार संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि दो वेद, संस्थान, संहनन, और अप्रशस्त विहायोगतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रासनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायुका भङ्ग क्षेत्रके समान है। देव गति चतुष्कके दो पदवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रियजाति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने १ आ० प्रतौ 'दोवेद० सादा० अष्टणोक०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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