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________________ महाचे पधाहियारे चौंस ० ' । देवगदिदुगं तित्थ० खैत्तभंगो । पर०-उस्सा०-पज्ज०-थिर-सुभ० ओघं । उज्जो ० [०-जस० उक्क० सत्तचौ० । अणु० सव्वलो० । ४० ३३. तेउए पंचणा० थीणगि ०३ - दोवेद० - मिच्छ० - अणताणु ०४ - णपुंस०तिरिक्ख० - एइंदियसंजुत्ताणं णीचा० पंचंत० उक० अणु० अट्ठ-णव० । छदंस०देवगतिक तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। परघात, उच्च्छास, पर्याप्त, स्थिर और शुभका भङ्ग ओके समान है । उद्योत और यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीका कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ-तीन लेश्यावाले संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव स्वस्थानमें और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्रात करते समय भी पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कर सकते हैं, अतः इनका इस पदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एकेन्द्रियादि सब जीवोंके सम्भव है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। आगे जिन प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है, वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । यहाँ छह दर्शनावरण आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहनेका कारण यह है कि इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते समय लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही स्पर्शन देखा जाता है। कारणका विचार अलग-अलग स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए। कृष्णादि लेश्याओंका स्पर्शन क्रमसे त्रसनालीका कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ कम दो बटे चौदह भागप्रमाण उपलब्ध होता है । मारणान्तिक समुद्घातके समय इतने क्षेत्रका स्पर्शन करते समय इनमें स्त्रीवेद आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंका उक्त पदकी अपेक्षा उक्तप्रमाण स्पर्शन कहा है । इसी प्रकार नरकगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके दोनों पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। दो आयुओंका दोनों पदोंकी अपेक्षा और मनुष्यायुका उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है। क्योंकि इनका स्वस्थानी बन् होता है और नरकायु व देवायुका चतुरिन्द्रिय तकके जीव बन्ध नहीं करते । मनुष्यायुका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एकेन्द्रियादि जीव भी करते हैं पर ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण प्राप्त होनेसे यह उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ देवगतिद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान कहनेका कारण यह है कि देवगति द्विकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भवनत्रिक में यदि मारणान्तिक समुद्घातके समय भी करें तो यह स्पर्शन लोकके भसंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। तथा इनमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एक तो मनुष्य करते हैं। दूसरे नरकमें यद्यपि इसका बन्ध होता है और मारणान्तिक समुद्रातके समय भी इसका बन्ध सम्भव है, फिर भी ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं प्राप्त होता । यहाँ परघात आदिके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवों का स्पर्शन ओघके समान बन जानेसे वह ओधके समान कहा है । यहाँ ऊपर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात के समय भी उद्योत और यशः कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, अतः इनका इस पदकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम सात बढे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । ३३. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिध्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, तिर्यश्वगति, एकेन्द्रियजाति संयुक्त प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और पाँच १ ता० प्रतौ 'वेड० अंगो० 'छच्चत्तारि बेचो०' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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