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________________ फोसणपरूवणा ३२. तिण्णिले० पंचणा० - थी गिद्धि ०३ - दोवेद ० - मिच्छ० - अनंताणु०४कुंस० - तिरिक्ख० - एइंदियसंजुत्ताणं णीचा० - पंचंतरा० उक्क० लोग० असंखें. सव्वलो० । अणु ० सव्वलो० । छस ० बारसक० - सत्तणोक० - तिरिक्खाउ०मणुस ० चदुजादि ० -समचदु० ओरालि० अंगो - असंपत्त० - मणुसाणु ० - आदाव-पसत्थ०[ तस०-बादर- ] सुभग-सुस्सर-आदें - उच्चा० उक० खैतभंगो । अणु० सव्वलो० । इत्थि० - चदुसंठा ० - पंच संघ - अप्पसत्थ० - दुस्सर० उक० छच्चत्तारि - वेच्चोंहस० । अणु ० सव्वलो० | दोआउ० खैत्तभंगो । मणुसाउ० उक० खैत्तभंगो । अणु० लोगस्स असंखे सव्वलो० । णिरयगदिदुगं वेउच्वि० - वेउच्चि ० अंगो० उक० अणु० वच्चत्तारि चे प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका भङ्ग ओघके समान है । अचतुदर्शनवाले जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । ३६ विशेषार्थ - असंयतों में एकेन्द्रियोंसे लेकर चतुर्थगुणस्थान तकके जीव गर्भित हो जाते हैं; इसलिए जिन प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है और जिनका एकेन्द्रियादि जीव भी बन्ध करते हैं, उनकी अपेक्षा यहाँ मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग बन जाता है । मात्र जिन प्रकृतियोंके स्पर्शनमें विशेषता है उनका अलगसे निर्देश किया है । यथाअसंयतों में छह दर्शनावरण आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध असंतसम्यग्दृष्टि जीव करते हैं और इनका स्पर्शन सनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है, इसलिए इन प्रकृतियोंका उक्त पदकी अपेक्षा उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा । तथा इनका एकेन्द्रिय जीवोंके भी बन्ध सम्भव है, इसलिए इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । इसी प्रकार वैकियिकषट्क आदिका अपनी-अपनी विशेषता जानकर ओघ के समान यहाँ स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । ३२. तीन लेश्याओं में पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चतुष्क, नपुंसक वेद और तिर्यञ्चगति आदि एकेन्द्रियसंयुक्त प्रकृतियाँ तथा नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। छह दर्शनावरण, बारह कपाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चायु, मनुष्यगति, चार जाति, समचतुरस्र संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आप, प्रशस्त विहायोगति, बस, बादर, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, चार संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति और दुःखरका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने क्रम से त्रसनालीका कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ कम दो बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयुओं का भङ्ग क्षेत्रके समान है । मनुष्यायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नरकगतिद्विक, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरआङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनाटीका कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ कम दो बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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