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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे उवसम० । णवरि खइग० देवगदि०४ खेत्तभंगो। ३०. संजदासंजदेसु देवाउ०-तित्थ० खेत्तभंगो। सेसाणं उक्क० अणु० छच्चों। ३१. असंजदेसु मदि०भंगो । णवरि छदंस०-बारसक०-सत्तणोक० उक० अट्ठचों । अणु० सव्वलो० । वेउब्वियछक्क-समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आर्दै. ओघभंगो । अचक्खु० औघं। और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें देवगतिचतुष्कका भङ्ग क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध यथायोग्य दसवें, नौवें और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य करते हैं। यतः ऐसे जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इनका इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा देवोंके विहारवत्स्वस्थानके समय भी इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। आगे जिन प्रक्रतियोंका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट या दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका सनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है, वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। देवोंमें मारणन्तिक समुद्धात करते समय संयतासंयत जीवोंके प्रत्याख्यानावरणचतष्कका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा सनालीका कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। आगे पञ्चेन्द्रियजाति आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका यह स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । मात्र यहाँ संयतासंयत ऐसा नहीं करना चाहिए । शेप कथन स्पष्ट ही है । यहाँ अवधिदर्शनी आदिमें इसी प्रकार जाननेकी सूचना कर जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें विशेषता कही है, उसका कारण यह है कि क्षायिकसम्यग्दर्शन मनुष्य ही उत्पन्न करते हैं, अतः ऐसे मनुष्य और ये यदि भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं तो वहाँ उत्पन्न हुए क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यश्च और मनुष्य देवगतिचतुष्कका बन्ध करते हैं। ऐसे जीवोंका यदि देवोमें मारणान्तिक समुद्भातकी अपेक्षा स्पर्शन लिया जाता है तो वह भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, अतः क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें देवगतिचतुष्कका दोनों पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। ३०. संयतासंयतोंमें देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीका कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेपार्थ-संयतासंयतोंके देवायुके सिवा सब प्रकृतियोंका देवोंमें मारणान्तिक समुद्भात करते समय उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ इनका दोनों पदोंकी अपेक्षा वसनालीका कुछ कम छह वटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा देवायुका मारणान्तिक समुद्रातके समय बन्ध नहीं होता और तीर्थङ्कर प्रकृतिका मारणान्तिक समुद्भातके समय बन्ध होकर भी मनुष्य ही इसका बन्ध करते है, इसलिए इनका दोनों पदोंको अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन प्राप्त होनेसे वह क्षेत्रके समान कहा है। ३१. असंयतोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि छह दर्शनावरण, बारह कपाय और सात नोकपायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकषट्क, समचतुरस्रसंस्थान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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