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________________ फोसणपरूवणा अणु० सव्वलो० । छदंस०-बारसक०-सत्तणोक०-उच्चा० उक्क० छचौँ । अणु० सब्बलो० । इथि०-चदुसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० उक्क० बारह० । अणु० सव्वलो० । दोगदि-पंचजादि-तिण्णिसरीर-हुंड-ओरालि०अंगो०-असंप०-वण्ण०४दोआणु०-[अगु०-उप०-] तस-थावरादिसत्त-अथिरादिपंच-णिमि० उक्क० खेत्तभंगो। अणु० सव्वलो० । देवगदिपंचग० उक्क० अणु० खेत्तभंगो । समचदु०-पसत्थ०-सुभगमुस्सर-आर्दै उक्क० छच्चों । अणु० सव्वलो० | पर०-उस्सा-पज०-थिर-सुभजस० उक्क० छचोंद्द० । अणु० सब्बलो० । एवं आदाउजो० । ग्यारह बंटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। छह दर्शनावरण बारह कषाय, सात नोकपाय और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाणक्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो गति, पाँच जाति, तीन शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग,असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस और स्थावर आदि सात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिपञ्चकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। परघात, उच्छास, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवाने त्रसनालीके कुछ कम छह वदे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार आतप आर उद्योतके दोना पढ़वाले जीवाका म्पशन जानना चाहिए। विशेषार्थ—यहाँ जिन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण म्पर्शन कहा है वह कार्मण काययोगके उक्त प्रमाण स्पर्शनको देखकर घटित कर लेना चाहिए । शेप स्पष्टीकरण इस प्रकार है-चारों गतिके कार्मणकाययोगी संज्ञी जीव पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कर सकते हैं। यतः इन जीवांका स्पर्शन नीचे छह और ऊपर छह इस प्रकार कुल कुछकम बारह गजप्रमाण प्रान हाता है, अतः यहाँ यह स्पशन बसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। मात्र जो मिथ्यादृष्टि जीव म्त्यानगुद्भित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद और नीचगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं, उनका ऊपर कुछ कम पाच राजूप्रमाण ही स्पर्शन बन सकता है, क्योंकि न तो ऐसे जीव आनतादिकमें उत्पन्न होते हैं और न आनतादिकसे आकर मनुष्यगतिमें ही उत्पन्न होते हैं। अतः यहाँ मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवांका म्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। छह दर्शनावरण आदिका सम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगी ही उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं और ऐसे जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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