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________________ फोसणपरूवणा १६. बादर-पजत्तापजत्ताणं एईदियसंजुत्ताणं उक्क० अणु० सव्वलो। इथि०-पुरिस-तिरिक्खाउ०-चदुजादि-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-आदावदोविहा०-तस- [बादर-] सुभग-दोसर-आदें उक्क० अणु० लोगस्स संखेंजदिभागो। मणुसाउ०-मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० उक्क० अणु० लोगस्स असंखें । सव्वसुहुमाणं हैं,पर अन्य एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्रात करते समय भी ये जीव पाँच ज्ञानावरण आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं और इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सब एकेन्द्रियोंके होता है, इसलिए इनके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । स्त्रीवेद आदि छब्बीसका, मनुष्यगति आदि तीनका, उद्योत आदि दोका और जिन प्रकृतियोंका यहाँ नाम निर्देश नहीं किया है,उनका भी सब एकेन्द्रिय जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं , इसलिए इनमें इन प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा स्त्रीवेद आदि छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एकेन्द्रियोंमें बादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीव करते हुए भी इनका सब प्रकारका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है । इनमें तिर्यञ्चायुका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन स्त्रीवेद आदिके समान घटित हो जानेसे यह उनके समान कहा है। मनुष्यायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवांका स्पशेन क्षेत्रके समान है.यह स्पष्ट ही है। तथा इसका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंको छोड़कर सब एकेन्द्रिय जीव करते हैं, पर ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण बन जानेसे यह उक्त प्रमाण कहा है । एक साथ एकेन्द्रिय जीव यदि मनुष्यायुका बन्ध करें तो असंख्यात जीव करेंगे और उस समय यदि इनका क्षेत्रस्पर्शन देखा जाय तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होगा, इसलिए तो यह उक्त प्रमाण कहा है और इस तरह यदि अ कालीन सब स्पर्शनका योग किया जाय तो वह सर्व लोकगत हो जानेसे उक्त प्रमाण कहा है,यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यों तो सब एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त जीव उद्योत और यश कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कर सकते हैं, पर ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता। हाँ,जो एकेन्द्रिय ऊपर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्भात करते हैं, उनके भी इन दो कोका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध सम्भव है। इसलिए यहाँ इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। यहाँ शेष प्रकृतियोंमें आतप प्रकृति बचती है सो उसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है,यह स्पष्ट ही है। १६. बादर एकेन्द्रिय और उसके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवों में एकेन्द्रिय संयुक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तिर्यश्चायु, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, दो विहायोगति, त्रस, बादर, सुभग, दो स्वर और आदेयका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायु, मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सब सूक्ष्म जीवोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी १ ताप्रती 'बादरपजत्ताणं अपजत्ताणं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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