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________________ १६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १५. एइंदिएसु पंचणा०-णवदंसणा०-दोवेद-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०तिरिक्व०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-डंड०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-थावरसुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्ते०-साधार०-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादें०-अजस०-- णिमि०-णीचा०-पंचंत० उक्क० अणु० सव्वलो० । इथि०-पुरिस०-चदुजादि-पंचसंठा० ओरा०अंगो०-छस्संघड०-दोविहा०-तस-बादर-सुभग-दोसर-आदें० उक० लोगस्स संखेजदिभागो । अणु० सव्वलोगो । एवं तिरिक्खाउ० । मणुसाउ० उक० खेतभंगो । अणु० लोगस्स असंखें सव्वलोगो वा। मणुसगदिदुग-उच्चा० उक० खेत्तभंगो। अणु० सव्वलो० । उज्जो०-जस० उक्क० सत्तचों । अणु० सव्वलो० । सेसाणं उक्क० खेत्तभंगो । अणु० सव्वलो० । करनेवाले जीवोंने सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंमें अपना-अपना स्पर्शन ले जाना चाहिए । विशेषार्थ-यहाँ जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध विहारवत्वस्थानके समय और एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्भात करते समय बन जाता है, उनका उन पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्शन कहा है और जिनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय नहीं बनता, उनका उन पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। इन्हीं विशेषताओंको और अपने स्पर्शनको ध्यानमें रखकर देवोंके सब अवान्तर भेदोंमें स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। १५. एकेन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो वियोगति, त्रस, बादर, सुभग, दो स्वर और आदेयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार तिर्यञ्चायुकी अपेक्षा स्पर्शन जानना चाहिए । मनुष्यायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सवे लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पशेन किया है। उद्योत और यश-कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें बादर पर्याप्त जीव ही सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते १ ता० आ० प्रत्योः 'असंखेजदिभागो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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