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________________ ३०४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे पदेसबंधट्ठाणाणि विसेसाधियाणि । सादस्स पदेसबंध विसे० । सव्वत्थोवाणि मिच्छ०सोलसक. जोगट्ठाणाणि । मिच्छ०-अणताणु०४ पदेसबंध. विसे० । अपञ्चक्खाण०४ पदेसबंध. विसे । पचक्खाण०४ पदेसबंध. विसे । कोधसंज० पदेसबंध. विसे० । माणसंज० पदेसबंध० विसे । मायसंज० पदेसबंध. विसेसा० । लोभसंज० पदेसबंध० विसेसा। सव्वत्थोवाणि णवणोकसायाणं जोगट्ठाणाणि । इथि०-णवूस० पदेसबंध. विसेसा० । छण्णोक० पदेसबंध० विसेसा० । पुरिस० पदेसबंध. विसेसा० । चदुण्हमाउगाणं सव्वासिं णामपगदीणं पंचण्हमंतराइगाणं च णाणावरणभंगो । णीचुच्चागोदाणं सादासाद०भंगो। एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिंदि०-तसर-पंचमण०पंचवचिजो०-कायजोगि-ओरालिय०-इत्थि०- पुरिस०-णqस० - अवगद० - कोधादि०४आभिणि०- सुद०-ओधि०-मणपज०-संजद-सामा० - छेदो०-चक्खु०-अचक्खु०-ओधिदं०सुक्कले०-भवसि०-सम्मादि०-खइग०-उवसम०-सण्णि-आहारग ति। ३३७, णिरयगदीए पंचणा० सव्वत्थोवाणि जोगट्ठाणाणि। पदेसबंध० विसे। एवं दोवेदणी०-दोआउ० सव्वाणं णामपगदीणं दोगोदै० पंचंतराइगाणं च । सव्वत्थोवाणि स्तोक हैं। उनसे असातावेदनीयके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । उनसे सातावेदनीयके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके योगस्थान सबसे स्तोक हैं। उनसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानावरणचतुष्क के प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । उनसे क्रोधसंज्वलनके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे मान संज्वलनके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे माया संज्वलनके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे लोभसंज्वलनके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। नौ नोकषायोंके योगस्थान सबसे स्तोक हैं । उनसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । उनसे छह नोकषायोंके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे पुरुषवेदके प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। चार आयु, नामकर्मकी सब प्रकृतियाँ और पाँच अन्तरायका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । नीचगोत्र और उच्चगोत्रका भङ्ग सातावेदनीय और असातावेदनीयके समान है। इस प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेवाले, नपुंसकवेदवाले, अपगतवेदवाले, क्रोधादि चार कषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए। ३३७. नरकगतिमें पाँच ज्ञानावरणके योगस्थान सबसे स्तोक हैं। तथा योगस्थानोंसे प्रदेशबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार दो वेदनीय, दो आयु, नामकर्मकी सब प्रकृतियाँ, दो गोत्र और पाँच अन्तरायके विषयमें जानना चाहिए । नौ दर्शनावरणके योगस्थान १. आ०प्रतौ 'तस० पंचमण' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'सव्वत्थो'। जोगहाणादो० पदे० विसे० साधियाणि ।' इति पाठः। ३. ता०प्रतौ 'दोगदि०' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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