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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे हाणि दो वि तुल्ला असंखेंजगुणा । अवट्ठि० अणंतगुणा । उवरि णाणाभंगो । सादादीणं सव्वत्थोवा अवढि० । असंखेंजभागवड्डि-हाणि दो वि तुल्ला असंखेंजगुणा। संखेंजभागवडि-हाणि दो वि तुल्ला असंखेंजगुणा । संखेंजगुणवड्डि-हाणि० दो वि तुल्ला असंखेंजगुणा । [अवत्त० असंखज्जगुणा । ] असंखेंजगुणहाणिवं. असंखेंजगु०। असंखेंजगुणवड्डि. विसे०। इत्थि-णबुंस०-चदुआउ०-चद्गदि-पंचजादि-वेउव्वि०-छस्संठा०. दोअंगो०-छस्संघ०-चदुआणु०-पर-उस्सा०-आदाउजो०-दोविहा०-तसथावरादिदसयुग०. दोगोद० सादभंगो कादव्वो। पुरिस०-चदुणोक. सव्वत्थोवा अणंतभागवडि०हाणि | अवढि० अणंतगु० । उवरि साद भंगो। आहारदुगं सव्वत्थोवा अवहि । असंखेंजभागवड्डि-हाणि० दो वि तुल्ला संखेंजगु० । संखेंजभागवड्डि-हाणि० दो वि संखेंजगुणा। संखेंजगुणवड्डि-हाणि० दो वि तुल्ला संखेंजगुणा । अवत्त० संखेंजगुणा । असंखेंजगुणहाणि० संखेंजगुणा। असंखेंजगुणवड्डी विसे । तित्थ० सव्वत्थोवा अवत्त । अवढि० असंखेंजगुणा । असंखेंजभागवडि-हाणि० दो वि तुल्ला असंखेंजगुणा। संखेजभागवड्डि-हाणि० दो वि तुल्ला असंखेंजगुणा । संखेंजगुणवड्डि-हाणि० दो वि हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। इससे आगेका अल्पबहुत्व ज्ञानावरणके समान है । सातावेदनीय आदिके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । स्त्री वेद, नपुंसकवेद, चार आयु, चार गति, पाँच जाति, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, स-स्थावर आदि दस युगल और दो गोत्रका भङ्ग सातावेदनीयके समान कहना चाहिए । पुरुषवेद और चार नोकषायोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। आगे सातावेदनीयके समान भङ्ग है । आहारकद्विकके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुण है । उनसे संख्यातगुणवृद्धि औ गुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । उनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात १. ता०प्रतौ 'असंखेजभाग (गुण) वट्टिहाणि०' इति पाठः। २. ता०प्रतौ 'तुल्ला असंखेजगु०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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