SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वडिबंधे अप्पाबहुअं २६७ तुल्ला असंखेंजगुणा । असंखेंजगुणहाणि. असंखेंजगुणा । असंखेंजगुणवड्डि विसे । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०-अचक्खु०-भवसि०-आहारग त्ति । ३२६. णेरइएसु पंचणाणावरणादिधुविगाणं सव्वत्थोवा अवढि । संखेजभागवड्वि-हाणि. दो वि तुल्ला असंखेजगुणा । उवरि ओघं । एसिं धुविगाणं अणंतभागवड्डि-हाणि अस्थि तेसिं ताओ थोवाओ। अवट्टि० असं०गु० । उवरि णोणा०भंगो । सेसं ओघ । एवं सव्वणिरय-सव्पपंचिंदियतिरिक्ख०-मणुस अपज०-[सव्वदेव-] सव्वएइंदि०-विगलिंदि०-पंचकायाणं च । तिरिक्खेसु ओघभंगो। गवरि धुविगाणं एसिं अणंतभागवड्डि-हाणि०] अत्थि तेसिं ताओ थोवाओ। अवढि० अणंतगु० । उवरि ओघो । मणुसेसु ओघो। णवरि दोआउ० वेउन्वियछक आहारदुर्ग आहारसरीरभंगो। सेसाणं ओघं । णवरि किंचि विसेसो। मणुसपजत्त-मणुसिणीसुतं चेव । णवरि संखेंज कादव्वं । ३२७. पंचिंदि०-तस०२ ओघं। णवरि यम्हि अवढि० अणंतगु० . तम्हि असंखेंजगुणं कादव्वं । पंचमण-तिण्णिवचि० पंचणा०-थीणगि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४देवगदि-ओरालिय०-वेउव्विय०-तेजा०-क० - वेउवि०अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । उनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए। ३२६. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । आगे ओघके समान भङ्ग है। जिन ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि होती है, उनके इन पदोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगणे हैं। आगे ज्ञानावरणके समान भङ्ग है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इस प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें जानना चाहिए । तिर्यश्चोंमें ओंघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि जिन ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है,उनके इन पदोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । आगे ओघके समान भङ्ग है । मनुष्योंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें दो आयु, वैक्रियिकषट्क और आहारकद्विकका भङ्ग आहारकशरीरके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । मात्र कुछ विशेषता है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें वही भग है। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए । ३२७. पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि जहाँ अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे कहे हैं वहाँ असंख्यातगुणे कहने चाहिए। पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy