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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे दोआउ०-मणुसगदिदुग-तित्थ०-उच्चा० उक्क० अणु० खेतभंगो। सेसाणं सव्वपगदीणं उक० अणु० छच्चोंट्स० । एवं सव्वणेरड्याणं अप्पप्पणो फोसणं णेदव्वं । १०. तिरिक्खेसु पंचणा०-थीणगिद्धि०३-सादासाद०-मिच्छ०-अणंताणु०४णस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-हुंड-] वण्ण०४-तिरिक्खाणु०अगु०४-थावर-मुहुम-पजत्तापजत्त-पत्तेय०-साधार०-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादें-' अजस०-णिमि०–णीचा०-पंचंत० उक्क० लोगस्स असंखे सव्वलोगो वा । अणु० सव्वलो। छदंस-बारसक०-सत्तणोक०-समचदु०-दोविहा०-सुभग-दोसर-आर्दै०-उच्चा० उक्क० छच्चौद्दस० । अणु० सव्वलो० । इत्थि० उक्क० दिवड्डचौदस० । अणु० सव्वलो० । त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगतिद्विक, तीर्थङ्करप्रकृति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने वसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब नारकियोंका अपना-अपना स्पर्शन ले जाना चाहिए। विशेषार्थ-नरकमें छह दर्शनावरण आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध पर्याप्त सम्यग्दृष्टि ही करते हैं, इसलिए इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे क्षेत्रके समान कहा है । यद्यपि छठेसे लेकर प्रथम नरक तकके सम्यग्दृष्टि नारकी मरकर मनुष्य होते हैं और इनके मारणान्तिक समुद्भातके समय उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, पर ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, इतना यहाँ स्पष्ट जानना चाहिए । दो आयुका प्रदेशबन्ध मारणान्तिक समुद्धातके समय नहीं होता। मनुष्यगतिद्विक आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मारणान्तिक समुद्रातके समय सम्भव होनेपर भी स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही रहता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके दोनों पदोंकी अपेक्षा भी स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । अब रहे प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव और शेष सव प्रकृतियोंके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीव सो मारणान्तिक समुद्धातके समय शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तथा मारणान्तिक समुद्धात और उपपादके समय इन सब प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे यह स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । प्रथमादि पृथिवियोंमें यह स्पर्शन इसी प्रकार घटित होनेसे उसे सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र सामान्य नारकियोंका जहाँ कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है वहाँ अपना-अपना स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। १०. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, तियश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलधुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, सात नोकषाय, समचतुरस्रसंस्थान, दोविहायोगति, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेदका १ ता० आ० प्रत्योः 'दूभग दुस्सर अणादे०' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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