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________________ वडिबंधे कालो २८७ हाणि० [जह० एग०, उक० आवलि असंखें। ] अवढि०-अवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेजसमयं । तित्थ० देवगदिभंगो। गवरि अवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेजसमयं । सेसाणं सादादीणं चत्तारिवड्डि - हाणि-अवढि०-अवत्त० सव्वद्धा। एवं ओघभंगो कायजोगि - ओरालि०-णवंस०-कोधादि०४-अचक्खुदं०-भवसि० - अभवसि०-आहारग त्ति । ओरालियमि० एवं चेव । णवरि देवगदिपंचग० असंखेंजगुणवष्टि० जह० उक्क० अंतो०। तीन हानिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग देवगतिके समान है । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। शेष सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेवाले, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, अभव्य और आहारक जीवों में जानना चाहिए । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में इसी प्रकार भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि देवगतिपश्चककी असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके नौ पदोंका बन्ध एकेन्द्रियादि सब जीव भी करते हैं, इसलिए इनके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा कहा है। मात्र इनका अवक्तव्यपद उपशमश्रेणिमें होता है या ऐसे जीवोंके होता है जो उपशमश्रेणिमें इनके अबन्धक होकर मरकर देव हो जाते हैं और उपशमणिपर प्रथम समयमें चढ़कर दूसरे समयमें अन्य जीव नहीं चढ़ते । तथा लगातार यदि जीव चढ़ते रहें तो संख्यात समय तक ही चढ़ते हैं। उसके बाद व्यवधान पड़ जाता है। इस हिसाबसे अवक्तव्यपद भी कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक संख्यात समय तक होता है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उक्त पदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । स्त्यानगृद्धित्रिक आदिके नौ पद एकेन्द्रियादि यथासम्भव सब जीवोंके सम्भव हैं, अतः इन पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान कहा है। तथा इनका अवक्तव्यपद ऊपरके गुणस्थानोंसे मिथ्यात्व और सासादनमें आनेपर प्रथम समयमें होता है और इन गुणस्थानोंको प्राप्त होनेका कमसे कम एक समय है और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि अन्य जिन गुणस्थानोंसे इन गुणस्थानों में जीव आते है, उनमेंसे कुछका परिमाण असंख्यात समय है. इसलिए अधिकसे अधिक असंख्यात समय तक इन गुणस्थानोंको प्राप्त होनेके क्रममें कोई बाधा नहीं आती। यही कारण है कि यहाँ इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । मात्र औदारिकशरीरका अवक्तव्यपद अन्य प्रकारसे प्राप्त कर यह काल घटित कर लेना चाहिए । छह दर्शनावरण आदिके नौ पदोंका बन्ध यथासम्भव एकेन्द्रियादि जीव करते हैं, इसलिए तो इनके उक्त पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा बन जानेसे वह ज्ञानावरणके समान कहा है । तथा इनमेंसे प्रत्याख्यानावरण चारको छोड़कर शेषका अवक्तव्यपद ज्ञानावरणके समान ही घटित हो जाता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका काल भी ज्ञानावरणके समान जाननेकी सूचना की है। अब रहीं प्रत्याख्यानावरण १. ता०प्रतौ 'सव्वट्ठा (द्धा)' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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