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________________ वडिबंधे परिमाणं २७७ ३११. संजदासंजद'० सव्वपगदीणं सव्वपदा कॅत्तिया ? असंखेंज्जा । णवरि तित्थ० सव्वपदा संखेंज्जा।। ३१२. तेउ०-पम्म० [पञ्चक्खाण०४-] देवगदि०४-तित्थ० अवत्त० कॅत्तिया ? संखेज्जा। सेसपदा असंखेज्जा। सेसपगदीणं सव्वपदा केत्तिया ? असंखेंज्जा । [ मणुसाउ०-आहारदु० सव्वपदा कॅत्तिया ? संखेंजा।] है जो संख्यात प्राप्त होता है, क्यों कि यहाँ इनके ये दो पद उपशमश्रेणिमें ही सम्भव हैं। चार संज्वलन और प्रत्याख्यानावरण चतुष्ककी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि ये दो पद चौथेसे पाँचवेमें जाते समय और ऊपरके गुणस्थानोंसे चौथेमें आते समय भी सम्भव हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके उक्त पदवालोंका परिमाण असंख्यात कहा है। इनके शेष पदोंका भङ्ग पाँच ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है। दो वेदनीय आदि कुछ तो परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अप्रत्याख्यानावरणका चतुर्थ गुणस्थानमें बन्ध होता है तथा मनुष्यगतिद्विक, औदारिकशरीरद्विक और वज्रर्षभनाराचसंहननका अविरतसम्यग्दृष्टि सब देव और नारकी बन्ध करते हैं, इसलिए यहाँ इनके सब पदोंके बन्धक जीवोंका परिमाण असंख्यात प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है । यहाँ मनुष्यायु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं, यह स्पष्ट ही है । अवधिदर्शनवाले आदि मूलमें कही गई तीन मार्गणाओंमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनमें आभिनिवोधिकज्ञानी आदि जीवोंके समान जाननेकी सूचना की है। ३११. संयतासंयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं। विशेषार्थ-संयतासंयतोंमें मनुष्य ही तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करते हैं, इसलिए इनमें इस प्रकृतिके सब पढ़वाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ३१२. पीत और पद्मलेश्यामें प्रत्याख्यानावरणचतुष्क, देवगतिचतुष्क, और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेप प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं ? तथा मनुष्यायु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। विशेषार्थ—जो संयत मनुष्य नीचेके गुणस्थानोंमें आते हैं या मरकर देव होते हैं उनके ही प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका अवक्तव्यपद होता है, इसलिए तो इन लेश्याओंमें अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा देव और नारकियोंके तो देवगतिचतुष्कका बन्ध ही नहीं होता, इसलिए वहाँ इनके अवक्तव्यपदकी बात ही नहीं । जो मिथ्यादृष्टि देव मरकर अन्य गतियों में उत्पन्न होते हैं उनके भी इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए वहाँ भी इनके अवक्तव्य पदकी बात नहीं । हाँ,जो उक्त लेश्यावाले सम्यग्दृष्टि देव मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं, उनके देवगतिचतुष्कका अवक्तव्यपद मुख्यरूपसे सम्भव है और ऐसे जीव संख्यात होते हैं, इसलिए यहाँ देवगतिचतष्कके अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा इन लेश्याओंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद मनुष्योंमें ही सम्भव है, इसलिए यहाँ इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव भी संख्यात कहे हैं। यहाँ इन प्रकृतियोंके शेष पदोंके तथा मनुष्यायु और आहारकद्विकको छोड़कर शेप प्रकृतियों के १. ता०प्रतौ 'वेदग० संजदासंजदा' इति पाठः । २. आ०प्रतौ देवगदि ४ मिच्छ• अवत्त.' इति पाठः। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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