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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे 310. एदेण कमेण आभिणि-सुद०-[ ओधि० पंचणा०-देवग०-पंचिंदि'०वेउवि०-तेजा-क०-समचदु०-वेउव्वि० अंगो०-वण्ण०४-देवाणुपु०-अगु०४-पसत्थ - तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें - णिमि०-तित्थ० - उच्चा०-पंचंत० चत्तारिवड्डि-हाणिअवढि० कैंत्तिया ? असंखेंज्जा / अवत्त० संखेंज्जा / एवं णिद्दा-पयला-पुरिस०-भय-दु० / एवं चदुदंसणा० / णवरि अणंतभागवड्डि-हाणि० संदज्जा। चदुसंज०-पच्चक्खाण०४ णाणा भंगो। णवरि अणंतभागवड्डि-हाणि० कॅत्तिया ? असंखेंज्जा। [दोवेदणी०अपच्चक्खाण०४-चदुणो०-देवाउ०-मणुसग०-ओरालि०-ओरालि अंगो०-वञ्जरि०मणुसाणु०-थिरादितिण्णियुग० सव्वपदा० कॅत्तिया० 1] असंखेंज्जा। मणुसाउ०आहारदुगं सव्वपदा केत्तिया ? संखेंज्जा / एवं ओधिदं०-सम्मादि०-वेदग० / सब पदवाले जीवोंका परिमाण अनन्त बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। पर कुल मनुष्य ही असंख्यात होते हैं, इसलिए मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले जीव कहीं असंख्यातसे अधिक नहीं हो सकते / यही कारण है कि यहाँ इसके सब पदवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात कहा है। 310. इस क्रमसे आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कर्मगशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार निद्रा, प्रचला, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग जानना चाहिए / तथा इसी प्रकार चार दर्शनावरणका भङ्ग है / इतनी विशेषता है कि इनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव संख्यात हैं। चार संज्वलन और प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि इनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। दो वेदनीय, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, चार नोकषाय, देवायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यायु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-ये तीन मार्गणावाले जीव असंख्यात हैं, इसलिए इनमें पाँच ज्ञानावरणादिकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यात कहे हैं। परन्तु इनका अवक्तव्यपद उपशमश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके उक्त पदके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। निद्रादिक पाँचका भङ्ग इसी प्रकार है, इसलिए उनके विषयमें पांच ज्ञानावरणादिके समान जाननेकी सूचना की है। चार दर्शनावरणका भङ्ग भी इसीप्रकार बन जाता है। मात्र इनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि भी सम्भव होनेसे इन पदोंके बन्धक जीवोंका परिमाण अलगसे कहा 1 ता०प्रतौ 'अभिणिसुद......केवल] पंचि.' आ० प्रतौ'आभिणि-सुद......"केवल पंचिंदि०' इति पाठः। 2 आ०प्रतौ 'वण्ण देवाणुपु० अगु० पसत्थ.' इति पाठः। 3 ता०प्रतौ 'केत्ति०१ असं [खेजा।.."असंखेजा। मणुसाउ०' आ०प्रती 'केत्तिया ? असंखेजा।"."असंखेजा। मणसाउ० इति पाठः। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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