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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ३१३. सुक्काए धुविगाणं चत्तारि [वडि-हाणि-अवधि केत्तिया० । असंखेंजा । अवत्त० कॅत्तिया० । संखेंज्जा। दोआउ०-आहार० सव्वपदा कॅत्तिया० ? संखेंजा । सेसाणं सव्वप० के० असंखेंज्जा] । णवरि मणुसगादिपंच०-देवगदि४-तित्थ० अवत्त. कॅत्तिया ? संखेंज्जा । सेसपदा असंखज्जा । [खइय० एवमेव । ] ३१४. उवसम० धुविगाणं मणुसगदिपंचग०-देवगदि०४ अवत्त० कॅत्तिया ? संखेंजा। सेसपदा असंखेंजा। चदुदंस० अणंतभागवड्डि-हाणि० संखेजा । सेसषदा कॅत्तिया ? असंखजा । आहारदुगं तित्थ० सव्वपदा केत्तिया ? संखेजा। सेसाणं पगदीणं सव्वपदा केत्तिया ? असंखेजा। सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं,यह स्पष्ट ही है। यहाँ मनुष्यायु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात है,यह भी स्पष्ट है। ३१३. शुक्ललेश्यामें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदके वन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। दो आयु और आहरकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिपञ्चक, देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । तथा शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेषार्थ-शुक्ललेश्यामें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद उपशमश्रेणिसे उतरते समय होता है, इसलिए यहाँ इनके उक्त पदवाले जीव संख्यात कहे हैं। जो शुक्ललेश्यावाले उपशमश्रोणिसे उतरते समय देवगतिचतुष्कका बन्ध करते हैं,उनके इन प्रकृतियोंका अवक्तव्य पद होता है और जो मरकर देव होते हैं. उनके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मनुष्यगति पञ्चकका अवक्तव्यपद होता है । यतः ये जीव संख्यात होते हैं, अतः यहाँ इनके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। शुक्ललेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ एक तो मनुष्य करते हैं। दूसरे उपशमश्रोणिमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी बन्धव्युच्छित्तिके बाद जो मर कर देव होते हैं या नीचे उतर आते हैं, वे भी इसके बन्धको पुनः प्रारम्भ करते हैं। अतः ये संख्यात होते हैं, अतः इस लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव भी संख्यात कहे हैं। शेष कथन सुगम है। यहाँ मूलमें कुछ पाठ त्रुटित है और गड़बड़ भी है । सुधारकर पाठ बनानेका प्रयत्न किया है। क्षायिकसम्यक्त्वमें प्रायः शुक्ललेश्याके समान भङ्ग बन जाता है, इसलिए उसमें भी शुक्ललेश्याके समान जाननेकी सूचना कर दी है । जो विशेषता है उसे जान लेना चाहिये। ३१४. उपशमसम्यक्त्वमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके और मनुष्यगति पश्चक तथा देवगति चतुष्कके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष पदों के बन्धक जीव असंख्यात हैं । चार दर्शनावरणकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष पदों के बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदों के बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के सब पदों के बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। __ १ ता. प्रतौ 'चत्तारि [वड्डि हाणि ] ....."एवमेव णरि' आप्रतौ 'चत्तारि....."एवमेव णवरि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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