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________________ 274 महाबंधे पदेसबंधाहियारे असंखेंजा। केसिं च मणुसाउ० सव्वपदा असंखेंजा। सेसाणं संखेंजा' / वेउव्वियमि० धुविगाणं एगपदं असंखेजा / सेसाणं असंखेंजगुणवड्डि-अवत्त० असंखेज्जा / तित्थ० एयपदं संखेजा / [ इत्थि० तित्थ० सव्वपदा संखेजा।] 308. मणुसेसु पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुं०-औरालि०जानना चाहिये / इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, विभङ्गज्ञानी और सासादनसम्यदृष्टि जीवोंमें देवायुके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायुके सब पदोंके बन्धक जीव किन्हीं में असंख्यात हैं और शेपमें संख्यात हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके एक पदके बन्धक जीब असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यात हैं। मात्र तीर्थङ्कर प्रकृतिके एक पदके बन्धक जीव संख्यात हैं / तथा स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्करप्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं। विशेषार्थ-नारकियोंका परिमाण असंख्यात है, इसलिए उनमें सब प्रकृतियोंके यथासम्भव पदवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात बन जाता है। मात्र इसके दो अपवाद हैंएक तो मनुष्यायुके सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीव और दूसरे तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीव / नारकी जीव गर्भज मनुष्योंकी आयुका ही बन्ध करते हैं और गर्भज मनुष्य संख्यात होते हैं, इसलिए नारकियोंमें मनुष्यायुके सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जो मनुष्य अन्तमें मिथ्यादृष्टि होकर दूसरे और तीसरे नरकमें उत्पन्न होते हैं,उन्हींके वहाँ सम्यग्दर्शन होनेपर तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद होता है। यतः ऐसे जीव संख्यात ही हो सकते हैं, अतः नारकियोंमें इसके अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। यहाँ गिनाई गई सब नारको आदि मार्गणाओंमें यह प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनमें सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र इन मार्गणाओंमेंसे तीन प्रकारके पञ्चेन्द्रिय तिर्यच, विभङ्गज्ञानी और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें देवायका भी बन्ध होता है, इसलिए इनमें देवायुके सब पदवाले जीवोंका कितना परिमाण होता है,यह अलगसे बतलाया है। तथा इन सब मार्गणाओं में यद्यपि मनुष्यायुका बन्ध होता है, पर उनमेंसे वैक्रियिककाययोगी और सासादनसम्यग्दृष्टि इन दो मागेणाओंमें संख्यात जीव ही इस आयुका बन्ध करते है, किन्तु अन्य मार्गणाओंमें असंख्यात जीव मनुष्यायुका बन्ध करते हैं, इसलिए उक्त मार्गणाओंमें मनुष्यायुसम्बन्धी उक्त विशेषताका उल्लेख करनेके लिए इसकी प्ररूपणा भी अलगसे की है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका परिमाण असंख्यात है, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके एक पदवाले जीव और तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़कर शेष प्रकृतियोंके दो पदवाले जीव असंख्यात हैं,यह स्पष्ट ही है। मात्र तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जो मनुष्य मर कर देव होते हैं और प्रथम नरकके नारकी होते हैं,उन्हींके इस योगमें तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्भव है। ऐसे जीव संख्यातसे अधिक नहीं हो सकते, इसलिए यहाँ इसके सब पदवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा मनुष्योंमें ही स्त्रीवेदी जीव तीर्थङ्करप्रकृतिका बन्ध करते हैं, इसलिए इस मार्गणामें इसके सब पदोंके बन्धक जीवोंका परिमाण अलगसे कहा है। 308. मनुष्यों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच 3. ता.आ.प्रत्योः 'सेसाणं असंखेज्जा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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