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________________ वडिबंधे परिमाणं 273 307. णेररएसु धुविगाणं चत्तारिवड्डि-हाणि-अवढि० कॅत्तिया ? असंखेंजा / मणुसाउ० सव्वपदा केत्तिया ? संखेंजा। सेसाणं पगदीणं सव्वपदा असंखेंजा / एसिं अणंतभागवड्डि-हाणि अस्थि तेसिं असंखेंजा / णवरि तित्थ० अवत्त० कॅत्तिया ? संखेंजा / एवं सव्वणेरइय-देव-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-अपज-सव्वविगलिंदिय-सव्वपुढ०आउ० - तेउ-वाउ० - बादरपजत्तपत्ते०-वेउब्विय[ वेउव्वियमि० - इत्थिवे०-पुरिसवे०विभंग०-सासणसम्मादिहि ति। ] णवरि पंचिंदियतिरिक्ख०-विभंग०-सासणे देवाउ० तीर्थङ्करप्रकृतिका सम्यग्दृष्टि कुछ जीव बन्ध करते हैं / यतः ये जीव भी असंख्यात हैं, अतः इनके सब पदोंके बन्धक जीव भी असंख्यात कहे हैं। मात्र तीर्थङ्करप्रकृतिका अवक्तव्यपद एक तो उपशमश्रेणिमें सम्भव है, दूसरे आठवें गुणस्थानमें बन्धव्यच्छित्तिके बाद जो जीव मरकर देव होते हैं, उनके प्रथम समयमें सम्भव है और तीसरे जो इसका बन्ध करनेवाले जीव दूसरेतीसरे नरकमें उत्पन्न होते हैं, उनके सम्भव है। यतः ये मिलकर भी संख्यात ही होते हैं, अतः यहाँ इसके अवक्तव्यपदवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है / आहारकद्विकके सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं, यह स्पष्ट ही है। अब रहीं शेष परावर्तमान प्रकृतियाँ सो उनके सब पद एकेन्द्रियादि सब जीवोंके सम्भव हैं, इसलिए उनके सब पदोंके बन्धक जीवोंका परिमाण अनन्त कहा है। यहाँ छह दर्शनावरण, बारह कषाय और सात नोकषायोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि भी होती है,पर उनके इन पदवालोंका परिमाण अभी तक नहीं कहा गया था, इसलिए उसका अलगसे उल्लेख किया है। तात्पर्य यह है कि ये पद भी यथासम्भव गुणस्थान चढ़ते समय और उतरते समय होते हैं। चढ़ते समय अनन्तभागवृद्धि होती है और उतरते समय अनन्तभागहानि / विशेष जानकारी स्वामित्वको देखकर कर लेनी चाहिए। यतः ऐसे जीव असंख्यात हो सकते हैं, अतः उक्त प्रकृतियोंके इन पदवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात कहा है। यहाँ मूलमें गिनाई गई सामान्य तिर्यश्च आदि अन्य मार्गणाओंमें यह ओघप्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तथा इनके साथ कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात ही होते हैं और यहाँ इनकी एकमात्र असंख्यातगुणवृद्धि ही होती है, इसलिए यहाँ इनके उक्त पदवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका एक असंख्यातगुणवृद्धि पद और शेषके असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्य ये दो पद होते हैं तथा इनका परिमाण अनन्त है,यह स्पष्ट ही है।। - 307. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यायुके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। जिन प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है,उनके इन पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, देव, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च, सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकायिक, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभङ्गज्ञानी और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें 1 ता प्रतौ 'बादर० पत्ते वेउब्विय......[सासण स] म्मामि० णवरि' आ० प्रतौ बादर पजत्तपत्ते. वेउब्धिय......सासण० सम्मामि० / णवरि' इति पाठः। 2 ता०प्रतौ 'विभंग / सासणे' इति पाठः / 35 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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