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________________ महाधे पदेसबंधाहियारे ७. पुढवि०[० आउ० तेउ० -वाउ० ओघभंगो। तेसिं चेव बादराणं [बादरपज्जत्ताणं] एइंदियसंजुत्ताणं जह० लोगस्स असंखै० । अज० सव्वलो० । तससंजुत्ताणं जह० अजह० लोगस्स असंखें० । एवं बादरपुढविअपज्जत्तार्दि०४ । सव्ववणप्फेदि - णियोदाणं सव्वे चैव भंगो सव्वलोगे ० । बादरपज्जत्तपत्ते ० बादरपुढविभंगो | एवं एदेण बीजेण दव्वं । एवं खेत्तं समत्तं ६ का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अर्थात् एकेन्द्रियोंके समान सब सूक्ष्म जीवों में क्षेत्रप्ररूपणा जाननी चाहिए । विशेषार्थ — पृथिवीकायिक आदि पाँचको छोड़कर अन्य जितनी असंख्यात संख्यावाली मार्गणाएँ हैं और संख्यात संख्यावाली मार्गणाएँ हैं उनका क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए उनमें सब प्रकृतियोंके दोनों पदवाले जीवोंका क्षेत्र उक्तप्रमाण जाननेकी सूचना की है । तथा एकेन्द्रियोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है, इसलिए इनमें मनुष्यायुको छोड़कर सब प्रकृतियोंके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण कहा है। इनमें मनुष्यायुके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव भी सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनमें एकेन्द्रियोंके समान प्ररूपणा बन जानेसे उसे उनके समान जाननेकी सूचना की है । ७. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में ओघके समान भङ्ग है | उन्हींके बादरों व बादर पर्याप्तकों में एकेन्द्रियसंयुक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है । तथा त्रससंयुक्त प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त आदि चारोंमें जानना चाहिए। सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद जीवोंमें सब प्रकृतियों के दोनों पदवाले जीवांका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है । बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंमें बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान भङ्ग है । इस प्रकार इस बीजपद के अनुसार ले जाना चाहिए । विशेषार्थ - पृथिवीकायिक आदि चारों मार्गणाओंका क्षेत्र सब लोकप्रमाण है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके दोनों पढ़वालोंका क्षेत्र ओघके समान जाननेकी सूचना की है। इन चारोंके बादरों में एकेन्द्रियजातिसंयुक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध स्वस्थानमें ही सम्भव है और अजघन्य प्रदेशबन्ध मारणान्तिक और उपपादपदके समय भी सम्भव है, इसलिए इनमें एकेन्द्रियजातिसंयुक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण कहा है। इनमें संयुक्त प्रकृतियोंका बन्ध स्वस्थानमें ही सम्भव है, इसलिए इनके दोनों पदवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त आदि चारमें भी इसी प्रकार अर्थात् बादर पृथिवीकायिक आदि चारके समान क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए। सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद जीवोंमें सब लोक क्षेत्र कहनेका कारण स्पष्ट ही है । तथा बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंका भङ्ग बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है, यह भी स्पष्ट है । यहाँ जिन मार्गणाओंका क्षेत्र नहीं कहा है, उसे जाननेके लिए इसी प्रकार इस बीजपदके अनुसार ले जाना चाहिए यह सूचना की है। यहाँ बादर वायुकायिक व उनके अपर्याप्तकों में लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र क्यों नहीं कहा यह विचारणीय है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त आदि चारका क्षेत्र बिलकुल नहीं कहा। शायद इसीके लिए अन्त में 'एवं एदेण बीजेण' इत्यादि सूचना की है । पहले कह आये हैं कि जघन्य प्रदेशबन्ध वायुकायिक जीव तद्भवस्थके प्रथम समय में जघन्य योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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