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________________ खेत परूवणा ५. जहणए पदं । दुवि० - ओघे० आदे० । ओघे० तिणिआउ ० - वेड व्वियछ०आहार ०२ - तित्थ जह० अजह० के० ? लोगस्स असंखे० । सेसाणं जह० अजह० के० ? सव्वलो० । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघो कायजोगि-ओरालि०-ओरालि० मि० कम्म० णंस० - कोधादि ०४-मदि- सुद० - असंज० - अचक्खु ० - किण्ण-णील- काउ०भवसि ० - अभवसि ० - मिच्छा० - असण्णि० - आहार० - अणाहारग ति । 0 O ५ ६. सेसाणं सव्वाणं संखज्ज - असंखेज्जरासीणं सव्वपगदीणं जह० अजह० लोगस्स असंखें । एइंदिएस सव्वपगदीणं जह० अजह० सव्वलो० । गवरि मणुसाउ० जह० अजह• लोगस्स असंखै० । एवं सव्वसुहुमाणं । ० अवान्तर भेदोंके समान प्ररूपणा जाननेकी सूचना की है । यहाँ पूर्वोक्त सब मार्गणाओं में मनुष्यायुके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र ओघके समान ही प्राप्त होता है, इसलिए उसका अलग से निर्देश नहीं किया है । ५ जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है—ओघ और आदेश । ओघसे तीन आयु, वैकथिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवों का कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है । इसी प्रकार ओघ के समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेवाले, क्रोधादि चार कषायत्राले, मृत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए । विशेषार्थ तीन आयु आदिका एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव बन्ध नहीं करते । असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय आदिमें भी प्रारम्भकी नौ प्रकृतियोंका असंज्ञी और संज्ञी जीव कदाचित् बन्ध करते हैं और अन्तको तीन प्रकृतियोंमें आहारकद्विकका अप्रमत्तसंयत आदि दो गुणस्थानवाले तथा तीर्थंकरप्रकृतिका असंयतसम्यग्दृष्टि आदि पाँच गुणस्थानवाले जीव कदाचित् और कोईकोई बन्ध करते हैं । यदि उक्त प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले इन सब जीवोंके क्षेत्रका विचार करते हैं तो वह लोके असंख्यातवें भागसे अधिक प्राप्त नहीं होता, इसलिए यहाँ ओघसे उक्त सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव योग्य सामाग्री के सद्भावमें करते हैं और अजघन्य प्रदेशबन्ध यथायोग्य सब जीवों के सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण कहा है । यहाँ मूलमें कही गई सामान्य तिर्यञ्च आदि मार्गणाओं में यह ओघप्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान क्षेत्र प्ररूपणा जाननेकी सूचना की है । मात्र जिन मार्गणाओं में जितनी प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है, उसे ध्यानमें रखकर ही ओघप्ररूपणा के अनुसार वहीँ क्षेत्रप्ररूपणा घटित करनी चाहिए । ६ शेष सत्र संख्यात और असंख्यात राशिवाली मार्गणाओं में सब प्रकृतियों का जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि इनमें मनुष्यायुका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवों For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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