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________________ २३४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे २७७. आभिणि' सुद-ओधि० चदुदंस० अणंतभागवड्डी कस्स० १ अण्ण० अपुव्वकरणस्स णिदा-पयलाबंधवोच्छिण्णपढमसमयबंधगस्स। अणंतभागहाणी कस्स ? अण्ण० अपुवकरणस्स णिद्दा-पयलापढमसमयबंधगस्स । पञ्चक्खाण०४ अणंतभागवड्डी कस्स० ? अण्णदरस्स संजदासंजदस्स पढमसमयबंधमाणगस्स । हाणी कस्स० १ अण्णद. संजमासंजमादो परिपडमाण पढमसमयबंध असंजदसम्मादिहि । चदुसंज. अणंतभागवड्डी कस्स० ? अण्ण० पढमसमयसंजदासंजदस्स [संजदस्स ] वा । अणंतभागहाणी कस्स०? अण्ण० संजमादो संजमासंजमादोवा परिपउमाणपढमसमयअसंजद० वा संजदासंजदस्स वा। सेसाणं ओघ । णवरि अणंतभागवडि-हाणी णत्थि । एवं ओधिदंस०सम्मादि०-खइग०-वेदगस०-उवसम० । मणजव ओघं। णवरि चदुदंस० अर्णतभागवड्डि-हाणी अस्थि । सेसाणं णत्थि । ताओ वि पगदीओ ओधिमंगो। एवं संजदसामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद० । णवरि एदाणं दोण्णं अणंतभागवड्डि-हाणी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है। क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। २७७. आभिनिबोधिकज्ञानी, अतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें चार दर्शनावरणकी अनन्तभागवृद्धिका स्वामी कौन है ? निद्रा और प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्तिके प्रथम समयमें विद्यमान अन्यतर अपूर्वकरण जीव स्वामी है। उनकी अनन्तभागहानिका स्वामी कौन है ? उतरते समय प्रथम समयमें निद्रा और प्रचलाका बन्ध करनेवाला अन्यतर अपूर्वकरण जीव स्वामी है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी अनन्तभागवृद्धिका स्वामी कौन है? चढ़ते समय प्रथम समयमें बन्ध करनेवाला अन्यतर संयतासंयत जीव स्वामी है। उनकी अनन्तभागहानिका स्वामी कौन है ? संयमासंयमसे गिरनेवाला और प्रथम समयमें बन्ध करनेवाला अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है। चार संज्वलनकी अनन्तभागवृद्धिका स्वामी कौन है ? चढ़ते समय प्रथम समयमें बन्ध करनेवाला अन्यतर संयतासंयत जीव और संयत जीव स्वामी है। उनकी अनन्तभागहानिका स्वामी कौन है ? संयमसे और संयमासंयमसे गिरनेवाला अन्यतर प्रथम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि शेष प्रकृतियोंमेंसे किसीकी भी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि नहीं है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना जाहिए । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें चार दर्शनावरणकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है तथा शेषको अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि नहीं है। फिर भी उन प्रकृतियोंका भंग अवधिज्ञानी जीवों के समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अन्तके इन दोनों संयमोंमें १. ता०प्रतौ 'धुविगाओ। आभिणि०' इति पाठः । २. ता. प्रतौ -वोच्छिण्णा पढमसमयबंधगं' इति पाटः। ३. आ०प्रतौ 'अणंतभागवडी कस्स०' इति पाठः। ४. ता०प्रतौ 'उवसमा (म०) मणपजव०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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